उप्र में सोशल इंजीनियरिंग की थ्योरी फेल हो गयी है। यह अलग बात है कि बहुजन समाज पार्टी को जीवनदान मिल गया है। 2014 में अपना खाता न खोल पाने वाली बसपा को कम से कम 12 सीटें मिलने की उम्मीद हैं। जबकि, समाजवादी पार्टी को कुल दो सीटों का फायदा दिख रहा है। उसके कुल सात उम्मीदवार बढ़त बनाए हुए हैं। पिछले चुनाव में सपा 5 सीटें जीती थी। गठबंधन में शामिल रालोद का इस बार भी खाता खुलने की उम्मीद नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार बसपा का आधार वोट बैंक अब भी मायावती के साथ जुड़ा है। लगतसा है मुसलमानों ने इस चुनाव में बसपा का साथ दिया है। लेकिन, समाजवादी पार्टी के साथ नहीं जुड़ पाया। सपा का वोट भी बसपा को शिफ्ट नहीं हो पाया। यही वजह है कि सपा को मोदी लहर के मुकाबले इस बार ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है। अखिलेश यादव अपने परिवार की सीटें भी बचाने में भी कामयाब नहीं दिख रहे हैं। आजमगढ़ से सिर्फ वह और मैनपुरी से पिता मुलायम सिंह यादव ही अपनी सीटें बचाने की स्थिति में हैं।
उप्र की राजनीति में स्थानीय नेताओं का काफी दबदबा रहा है। लेकिन इस चुनाव में क्षेत्रीय क्षत्रपों की राजनीति को करारी हार का सामना करना पड़ा है। कम से कम आधा दर्जन सूरमाओं ने अपने-अपने उम्मीदवार थे। किसी ने कांग्रेस से गठबंधन किया था तो कोई भाजपा के साथ था। कुछ दल अपने बूते चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन अपना दल सोने लाल की अनुप्रिया पटेल के अलावा किसी भी क्षेत्रीय क्षत्रप को सफलता नहीं मिला। विधायक रघुराज प्रताप सिंह राजा भइया की जनसत्ता लोकतांत्रिक पार्टी, शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी, बाबूसिंह कुशवाहा का जनअधिकार मंच, महान दल और कृष्णा पटेल के गुट वाला अपना दल के प्रत्याशी जमानत बचाने भर का वोट नहीं जुटा पाए हैं। सबसे खराब स्थिति तो सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की है। पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर को न केवल मंत्रिपद गंवाना पड़ा है बल्कि उनके सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गयी है।
हिंदी पट्टी के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उप्र में 80 लोकसभा सीटों में से 60 सीटें इस बार भाजपा के खाते में जाती दिख रही हैं। कांग्रेस केवल एक सीट तक सिमट सकती है। अमेठी लोकसभा सीट पर स्मृति ईरानी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर बढ़त बनाए हुए हैं। अगर वे हारे तो यह कांग्रेस के संभवत: सबसे शर्मनाक बात होगी। पिछली बार कांग्रेस ने अमेठी और रायबरेली से सोनिया गांधी की सीट जीती थी। इस बार प्रियंका गांधी को महासचिव बनाकर कांग्रेस ने तुरुप का पत्ता चला था। लेकिन उसे बुरी तरह से पराजय मिली है। प्रियंका का जादू मतदाताओं को नहीं लुभा पाया।