जिलानी ने कहा कि जिसे सब शरिया कोर्ट कह रहे हैं। वह दारुल कजा है। यह कोई समानांतर अदालत नहीं है। यहां कौम के आपसी मसलों को सुलझाया जाता है। यदि कोई शरियत कोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह अदालत जा सकता है। इसका मकसद है कि मुस्लिम लोग अपने छोटे मसलों को अन्य अदालतों में ले जाने के बजाय दारुल-कजा में सुलझाएं। उन्होंने बताया कि एक शरियत कोर्ट पर हर महीने कम से कम 50 हजार रुपये खर्च होते हैं। अब हर जिले में दारुल-कजा खोलने के लिये संसाधन जुटाने पर विचार-विमर्श होगा।
बोर्ड क्यों गठित करना चाहता है शरियत कोर्ट
मुस्लिम मामलों के जानकार मानते हैं कि बीजेपी सरकार ने तीन तलाक को गैर कानूनी करार दे दिया है। अब सरकार की कोशिश निकाह, हलाला और एक बार में एक से ज़्यादा शादियां करने को गैर-कानून करार देने पर है। अभी तक मुसलमानों के इस तरह के निजी मामलों की जिम्मेदारी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हुआ करती थी। मौजूदा हालातों में पर्सनल लॉ बोर्ड को लग रहा है कि मुसलमानों में उसकी हैसियत कमजोर होने लगी है। मुस्लिमों की संस्था दारुल कजा कमेटी के ऑर्गेनाइजर काजी तबरेज आलम कहते हैं कि देश की अदालतों पर मुकदमों का बहुत बोझ है। इसलिए मुसलमानों को शरई कोर्ट में अपने मुकदमे लेकर जाना चाहिए। इससे जल्द न्याय मिलेगा और सरकार का पैसा भी बचेगा।
मुस्लिम मामलों के जानकार मानते हैं कि बीजेपी सरकार ने तीन तलाक को गैर कानूनी करार दे दिया है। अब सरकार की कोशिश निकाह, हलाला और एक बार में एक से ज़्यादा शादियां करने को गैर-कानून करार देने पर है। अभी तक मुसलमानों के इस तरह के निजी मामलों की जिम्मेदारी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हुआ करती थी। मौजूदा हालातों में पर्सनल लॉ बोर्ड को लग रहा है कि मुसलमानों में उसकी हैसियत कमजोर होने लगी है। मुस्लिमों की संस्था दारुल कजा कमेटी के ऑर्गेनाइजर काजी तबरेज आलम कहते हैं कि देश की अदालतों पर मुकदमों का बहुत बोझ है। इसलिए मुसलमानों को शरई कोर्ट में अपने मुकदमे लेकर जाना चाहिए। इससे जल्द न्याय मिलेगा और सरकार का पैसा भी बचेगा।
शरिया कोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट ने 8 जुलाई 2014 को शरिया अदालतों पर पांबदी लगाने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि किसी को शरिया कोर्ट की बात मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर कोई शरिया कोर्ट में जाना चाहता है तो उसको रोका भी नहीं जा सकता है। यानी शरिया कोर्ट के फैसले का कानूनी नजरिये से कोई महत्व नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने 8 जुलाई 2014 को शरिया अदालतों पर पांबदी लगाने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि किसी को शरिया कोर्ट की बात मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर कोई शरिया कोर्ट में जाना चाहता है तो उसको रोका भी नहीं जा सकता है। यानी शरिया कोर्ट के फैसले का कानूनी नजरिये से कोई महत्व नहीं है।