इस क्रम में उन्होंने कहा कि ग्लैन्डर्स फार्सी एक बहुत ही पुरानी बीमारी सांसर्गिक (कानटेजियस) रोग है। सन 450 ई0 पूर्व में इस बीमारी का उल्लेख हिप्पोक्रेटस नामक चिकित्साविद ने किया था। एक समय में यह बीमारी पूरे विश्व में फैली हुयी थी। सन 1892 में ग्रेट ब्रिटेन में 3000 से अधिक ग्लैन्डर्स के केस पाये गए थे। वर्तमान में इस रोग का विश्व के अधिकतर देशों से उन्मूलन कर दिया गया है या फिर इसे नियंत्रित कर लिया गया है। ग्लैन्डर्स अभी भी मंगोलिया में पाया जाता है तथा इसके कुछ मामले एशिया के विभिन्न भागों तथा पाकिस्तान व भारत में भी पाये जाते हैं। इस रोग के लक्षण सन 1881 में प्रथम बार अश्व प्रजाति के पशुओं में पाये गए। अश्व कुल के पशुओं जैसे घोड़ा, खच्चर, टट्टू आदि में इस रोग के लक्षण पाये जाते हैं। गधों में यह रोग सबसे अधिक पाया जाता है।
यह है घातक रोग के लक्षण- इस रोग से ग्रसित होने के कारण गधे दो से तीन हफ्तों में मर जाते हैं। घोड़ों में यह एक्यूट व क्रोनिक दोनों फार्मों में होता है। यह रोग कुत्ता , बिल्ली व ऊंटो को भी संक्रमित कर सकता है, क्योंकि यह एक जूनोटिक प्रकृति का रोग है। अतः इस रोग के फैलने की आशंका उन मनुष्यों में भी रहती है, जो इनके सम्पर्क में आते हैं या अस्तबल में रोजाना काम करते हैं। मनुष्यों में यह एक घातक बीमारी है। सूकर तथा गाय, भैंस इस रोग से प्रभावित नहीं होते हैं। इस रोग का कारक बर्खोलाडोरिया मैलीयाई नामक जीवाणु हैं, जो ग्राम निगेटिव, गतिहीन व राड (छड़) के आकार का होता है।
ऐसे फैलता है यह रोग- यह रोग मुख्यतः संदूषित भोजन व पानी ग्रहण करने से होता है। त्वचा की खरोंच, घाव आदि से भी रोग के जीवाणु, बीमार पशुओं के सम्पर्क में आने पर, स्वस्थ्य पशु मानव में प्रवेश कर जाते हैं। कभी-कभी स्वांस के द्वारा भी मानव में यह रोग फैल जाता है। विश्व के अधिकांश देशों से इस रोग का उन्मूलन हो चुका है लेकिन भारत के कई राज्यों में इस रोग के लक्षण पाये गए हैं। घोड़ों में इस रोग के लक्षण काफी भिन्नता रखते हैं। यह रोग अतितीर्व व दीर्घकालिक दोनो रूपों में होता है तथा कभी-कभी बिना किसी वाहृय लक्षण के घोड़ा बीमार रहता है एवं उसके फेफड़ों में गाठें पड़ जाती हैं। प्रारम्भ में नाक से पतले पानी की तरह श्राव होता है, जो बाद में गाढ़ा पीला व तैलीय रूप धारण कर लेता है। नाक व स्वांस की नली की श्लेष्मिका झिल्ली में अल्सर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में अश्व की स्वासं तेज चलती है तथा सांस लेने में उसे कठिनाई होती है। दीर्घकालिक रोग से ग्रस्त पशुओं में त्वचा प्रभावित होती है, जिसमें सबक्यूटेनियस (गले की) ग्रंथिकाएं सूझकर किसी गांठदार रस्सी की तरह दिखाई देती हैं, जो कि बाद में मबाद से भरे होने के कारण खुल हाती हैं, जिसमें से संक्रमित मबाद निकला है और रोग चिरकालिक होने के कारण फेफड़ों में विकार हो जाता है।
ऐसे पाया जा सकता है रोग पर नियंत्रण- सामान्यतया रोग के नियंत्रण हेतु उपचार न करके बीमार पशुओं को नष्ट किया जाना ही इस रोग का एकमात्र उपाय है। रोग का शीघ्र निदान, पशुओं के अस्तबल, लगाम व जीन का जीवाणु नासक घोल से विसंक्रमण ही रोग से बचने का प्रमुख आधार है।
अंत में जिलाधिकारी ने बैठक में उपस्थित पशु चिकित्सकों से कहा कि इस बीमारी से ग्रसित अश्व प्रजाति के सभी पशुओं की माॅनीटरिंग करा लें, जिससे उन्हें समय रहते उत्तम प्रकार के उपचार सेवा प्रदान की जा सके। इसके साथ ही जिलाधिकारी ने कहा कि अपने-अपने क्षेत्रों में गांव वालों से सम्पर्क कर चारागाह के पास स्थित जमीन का चिन्हीकरण करा लें एवं गौ संरक्षण के कार्य में सहयोग प्रदान करें। चारागाह को विकसित करने के लिए ट्रेंच खुदवाने का कार्य करायें एवं ग्रामीणों को इस कार्य के लिए अधिक से अधिक प्रेरित करें।