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कोटा के शाही दशहरे मेले की 10 कहानियांः 124 साल से कायम है परंपराओं का आकर्षण

कोटा दशहरा मेले का गौरवशाली इतिहास रहा है। नई पीढ़ी को सांस्कृतिक विरासत की झलक मेला और उसके आगाज की परंपराओं में देखने के लिए मिलती है।

कोटाSep 30, 2017 / 04:20 pm

​Vineet singh

perspectives of traditions that have lasted 124 years in Kota Dussehra

कोटा के पूर्व राजपरिवार के सदस्य एवं पूर्व सांसद इज्यराज सिंह कहते हैं कि आज परंपराओं के मूल स्वरूप को बरकार रखने के साथ पर्यटकों को जोडऩे की जरूरत है। परंपराओं का आकर्षण बनाए रखने के लिए भी प्रयास करने की जरूरत है। मेले के स्वरूप को और ज्यादा व्यवस्थित किया जाना चाहिए। यहां आने वाले व्यवसायियों को सुरक्षा का माहौल मिले, उनके साथ अच्छा व्यवहार हो। मेले में होने वाले कार्यक्रमों को और ज्यादा लोकप्रिय बनाने की जरूरत है।
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इज्यराज सिंह कहते हैं कि शासन-प्रशासन के साथ कोटा के लोगों की भी इस सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध बनाने में भागीदारी होनी चाहिए। इस तरह सामूहिक प्रयासों से दशहरा मेले का वैभव पुन: लौटेगा और पूरे देश में फिर से पहचान कायम होगी। बाहर से मेला देखने आने वालों की संख्या में भी इजाफा होगा।
इसलिए है खास कोटा का शाही दशहरा मेलाः-

– रावण को मारने की परंपरा तो हमारे समाज में सदियों से मौजूद है, लेकिन कोटा में आधुनिक दशहरा मेला की शुरुआत महाराव भीम सिंह द्वितीय के शासन काल (1889 से 1940 ई.) में हुई।
– इस बार कोटा दशहरा मेला अपनी 124 वीं वर्षगांठ मनाएगा। 1951 में पहली बार अखिल भारतीय भजन-कीर्तन प्रतियोगिता के तौर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सूत्रपात हुआ।

– इसके तीन साल बाद अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरा भी आ जुड़े। 1960 में पहली बार फिल्मी गायकों के कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
– टैक्स फ्री खरीदारी रियासतकालीन मेले का आकर्षण होता था। दुकानदारों से कोई चुंगी या कर नहीं लिया जाता था। उल्टा दुकानें लगाने और खाने-पीने का इंतजाम रियासत करती थी।

– रावण की विद्वता का सम्मान करते हुए उसे रावण जी कह कर संबोधित किया जाता था। साथ ही रावण का दहन नहीं होता था, उसका वध किया जाता था।
– रावण बड़ा विद्वान था, मृत्यु के द्वार पर खड़े रावण से दीक्षा लेने के लिए भगवान राम ने लक्ष्मण को उनके पास भेजा था। कोटा में रावण का सिर जमीन पर गिरते ही लोग उसकी लकडिय़ां बीनने के लिए दौड़ पड़ते थे। माना जाता था कि वह लक्ष्मण की तरह ही मरणासन्न रावण से जीवन का ज्ञान लेने जा रहे हैं।
– 1960 में हरिवंश राय बच्चन ने दशहरा मेले में कविता पाठ किया। इससे पहले हेमन्त कुमार, मन्नाडे, गोपाल प्रसाद व्यास और मेघराज मुकुल सरीखे कलाकार भी यहां अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके हैं।
– लंगा मांगडियार परंपरा के नूर मुहम्मद लंगा और वीन बादक पेप खां को भी कोटा ने ही मंच दिया था।

(जैसा कि पूर्व राजपरिवार के सदस्य इज्यराज सिंह ने विनीत सिंह को बताया)

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