कोटा

कोटा के शाही दशहरे की 10 कहानियांः 9 दिन चलता था असत्य पर सत्य की जीत का शाही जश्न

कोटा का 124 साल पुराना दशहरा कोई एक दिन का समारोह नहीं था, बल्कि 9 दिन तक चलने वाला ऐतिहासिक राजसी आयोजन था।

कोटाSep 30, 2017 / 04:56 pm

​Vineet singh

Kota s Imperial Dussehra Fair Ran nine days

इतिहास कोटा दशहरा मेले को देश के सबसे बड़े और प्राचीन समारोहों के तौर पर दर्ज करता है। दशानन वध का जश्न नौ दिन तक होता था। शुरुआत आसोज सुदी (अश्विन माह) की पंचमी से होती थी और आसोज सुदी तेरस तक सवारियों, दरीखानों और पूजन के कार्यक्रम होते थे।
 

दशहरा उत्सव की शुरुआत डाढ़ देवी के पूजन से होती थी। इस दिन कोटा से पहली सवारी डाढ़ देवी मंदिर जाती थी। डाढ़ देवी के दरबार में महाराव पूजन करते थे। बलि की भी प्रथा थी लेकिन बाद में बंद कर दी गई। पूजा के बाद महाराव जागीरदारों और अधिकारियों को रूमाल बख्शते थे। इसके बाद सप्तमी की सवारी सवारी निकाली जाती थी और इस दिन महाराव नांता के भैरूजी, फिर अभेड़ा की करणी माता की पूजा करने जाते थे। अष्टमी के पूजन के लिए सुबह सात बजे महाराव से गढ़ की जनानी ड्योढ़ी के आशापुरा माता मंदिर में पूजा करते थे, घोड़ों और अस्त्रों का पूजन होता था। शाम को फिर से इसी मंदिर में पूजन होता और फिर बृजनाथ जी मंदिर में हवन पूजन होता था।
डोडा का दरीखाना
अष्टमी को शाम को छह बजे हथियां पोल के बाहर छोटे चबूतरे पर दरीखाना होता था। इस दरीखाने में अव्वल उम्मेद इन्फ्रेंट्री के ड्योढ़े तैयार होते थे, जिनके तीन-तीन फायर होते थे। इसके बाद गढ़ जाब्ता के ड्योढ़े के तीन-तीन फायर होते थे। एक-एक फायर के साथ एक-एक तोप दागी जाती थी।
आसापुरा की सवारी
नवमी को शाम पांच बजे महाराव आशापुरा माता मंदिर में ऊब देवी का पूजन करते थे। साढ़े पांच बजे महाराव सवारी सहित गढ़ से किशोरपुरा दरवाजे के बाहर आशापुरा माता मंदिर जातेे। इसके बाद रावण, गढ़ और शहर पनाह की तोपों के तीन-तीन फायर होते। फिर सवारी गढ़ की ओर चल देती थी। हथियां पोल पर हाथियों और घोड़ों की पूजा होती और तोपों के तीन फायर होते थे।
रंगबाड़ी की सवारी
दशमी पर विजया दशमी का उत्सव होता। सुबह नौ बजे के करीब महाराव बृजनाथजी के दर्शन करते। यहां से सवारी रेतवाली से रंगबाड़ी के लिए रवाना होती। रंगबाड़ी में बालाजी का पूजन होता था। यहां चौगान्या होता था, लेकिन बाद में इसे बंद कर दिया गया। इसमें शराब से मस्त भैंसे को सरदारों के बीच छोड़ते थे, जिसकी गर्दन सरदारों को एक वार में काटनी होती थी।
खेजड़ी पूजन
दसवीं के दिन रावण वध की सवारी से पहले गढ़ में खेजड़ी वृक्ष का पूजन होता था। आरती के बाद तोप से तीन फायर होते थे। खासा घोड़े आते थे। घोड़ों से रावण जी घुमाए जाते थे।
रावण वध की सवारी
रावण वध की सवारी सबसे बड़ी होती थी। हजारों लोग देखने आते थे। सवारी के साथ चलने वाले हाथी के हौदे में रखा जयपुर से भटवाड़ा के युद्ध में छीना गया पचरंगा झंडा एवं निशान मुख्य आकर्षण होता था। सवारी रेतवाली में पहुंचती जहां जम्बरखाना, स्टेट लांसर वा बाडी गार्ड सलामी देते थे। इसके बाद महाराव रावण को मनाने के लिए चौबदार भेजने का हुक्म देते थे। चौबदार लंका (रावण वध स्थल दशहरा मेला ग्राउंड) जाता। गढ़-रावण व शहरपनाह की तोपों के तीन-तीन फायर होतेे। चोबदार रावण के मानने की खबर लाता और महाराव को जानकारी दी जाती। तब सवारी आगे बढ़ती। लंका पहुंचने पर तोरण के कोरड़े मारे जाते। महाराव मैदान में कुर्सी पर बैठ जाते। महाराज कुमार सीताजी एवं शमी पूजन करते। रावण की नाभि में अमृत कलश का प्रतीक मटका रखा जाता। जिसे महाराव और महाराज कुमार तीर मारकर फोड़ देते। इसके बाद उमराव और सरदार तीर चलाते। इसके बाद एक हाथी लंका भेजा जाता। रावण के बुत पर लकड़ी के दस चेहते बने होते थे। जिन्हें जंजीर से बांधा जाता था। हाथी आने पर जंजीर का एक सिरा उसके पैर में बांध दिया जाता और मुहूर्त के मुताबिक हाथी जंजीर खींचकर रावण का सिर धड़ से अलग कर देता। 19 तोपों की सलामी दी जाती थी और लकड़ी के टुकड़ों को शुभ मानते हुए लोगों में इन्हें बीनने की होड़ मच जाती थी।
मोयला की सवारी
विजय दशमी की सवारी जैसा ही जाब्ता ग्यारस के दिन भी निकलता। गढ़ से रेतवाली, किशोरपुरा होते हुए सवारी आशापुरा माता मंदिर पहुंचती। मंदिर के दरीखाना लगता। 1939 में इसमें 163 जागीरदार महाराव को नजर देने आए थे। इसके बाद रावणजी की तोपों से तीन-तीन फायर कर लंका फतह का ऐलान होता। सवारी गढ़ पहुंचती तो चार तोपें दागी जाती।
फौज की नजरें
आसोज सुदी बारस के दिन यादघर पर शाम छह बजे फौज के अफसर दरबार को नजर भेंट करने आते। सभी लोग बाबर्दी हुआ करते थे।

अहलकारान महकमाजात की नजरें
तेरस को सुबह साढ़े नौ बजे यादघर के हाल में दशहरा उत्सव का आखिरी दरीखाना सजता। यह दरबार और कर्मचारियों के बीच व्यक्तिगत परिचय का अवसर होता था। नजर के रुपए खजाना प्राइवेट में जमा होते।
(जैसा कि इतिहासकार प्रो. जगत नारायण श्रीवास्तव ने संवाददाता विनीत सिंह को बताया।)

संबंधित विषय:

Hindi News / Kota / कोटा के शाही दशहरे की 10 कहानियांः 9 दिन चलता था असत्य पर सत्य की जीत का शाही जश्न

Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.