पूरी दुनिया रावण जलाती है, लेकिन कोटा में रावण का वध किया जाता था। वध से पहले हरकारा रावण को समर्पण के लिए मनाने जाता था, लेकिन तोपें चलाकर युद्ध की घोषणा होती थी। ये सब छोडि़ए रावण की विद्वता का ऐसा सम्मान था कि उसे रावणजी कहा जाता था। वध के लिए गढ़ से निकलने वाली सवारी राजसी ठाठ-बाट और परंपराओं की कहानी बताती थी। पर, आधुनिकता की दौड़ ने जड़ों से दूर कर दिया। नहीं तो मैसूर से ज्यादा भीड़ कोटा दशहरा देखने आती थी।
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परंपराओं से कटा दशहरा इतिहास तभी आकर्षक होता है जब उसका अनूठापन बरकरार रहे। करीब सवा सौ साल के सफर में दशहरा मेला काफी हद तक परंपराओं से कट गया है। कोटा में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के साथ मंदोदरी और खर-दूषण का वध होता था। दशहरा मैदान में इनके पक्के बुत बने थे। पंचमी के दिन से इन पर लकड़ी के सिर सजाते थे। पहले दिन रावण का मुंह लाल होता था और लोग उसे कंकड़ी मारते थे। मान्यता थी कि ऐसा करने से मुसीबतें दूर होती हैं। कंकड़ी आज भी मारी जाती है, लेकिन रावण को छोड़ बाकी बुत तोड़ दिए गए। दशहरा मेला में बड़ा आकर्षण १९६३ तक तोपों की गोलाबारी थी। नौ दुर्गा, नारायण बाण, नगीना, बलम देज, ढाई सेर, ऊंदरी-सुंदरी और सौ कंडे की नाल जैसी तोपें थीं।
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खरीदारी हुई खत्म दशहरा प्रजा की मदद के लिए भी मनाया जाता था। मेले में आने वाले दुकानदारों से कर वसूली नहीं होती थी। दाम कम होने से लोग दूर-दूर से लोग खरीदारी करने आते थे। टिपटा से दुकानें सजना शुरू हो जाती थीं। पशु बाजार में ग्रामीण पशुओं को अच्छे दामों पर बेचने और खरीदने के लिए आते थे। यदि पशु मेला दूर जाएगा तो ग्रामीणों का जुड़ाव कैसे रहेगा? एक कहावत आज भी है:- रावणजी को तीसरो, कोटा भरे नीसरो। यानि दशमी के तीन दिन बाद मेला खत्म होता था।