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कोटा के शाही दशहरे में 187 साल तक शर्मसार होती रही जयपुर रियासत

कोटा का शाही दशहरा अपनी शानो-शौकत के लिए ही नहीं, जयपुर रियासत का दंभ तोड़ने के लिए दुनियाभर में जाना जाता है।

कोटाOct 01, 2017 / 09:37 am

​Vineet singh

कोटा के शाही दशहरे में 187 साल तक शर्मसार होती रही जयपुर रियासत

Jaipur princely state shy 187 years in the imperial Dussehra of Kota

राजपूताने की सबसे शक्तिशाली रियासत होने का दंभ भरने वाले जयपुर रजवाड़े को 187 साल तक कोटा रियासत के हाथों शर्मसार होना पड़ा। जब भी दशहरा आता कोटा के महाराव की सवारी पचरंगा झंडा लेकर रावण का वध करने निकलती। रावण दहन से पहले इस झंडे को रावण के सिर पर लगाया जाता था, तब कोटा के महाराव रावण के साथ-साथ जयपुर रियासत के दंभ का वध करते। यह पचरंगा झंडा जयपुर रियासत का वो शाही ध्वज था जिसे कोटा के महाराव शत्रुशाल की सेना ने 1761 की लड़ाई में उन्हें हराकर छीना था। आइए इतिहासकार प्रो. जगत नारायण श्रीवास्तव की जुबानी जानते हैं कोटा के दशहरे की एक और गौरवमयी कहानीः-
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कोटड़ियों पर कब्जे को लेकर छिड़ी जंग

कोटा और बूंदी के बीच इंद्रगढ़, खातोली, बलवन, आंतरदाह, करवर, करवार और पीपलदाह समेत हाड़ाओं की 8 कोटड़ियां थीं। रणथंभौर परगने में आने वाली ये कोटड़ियां मुगलों की स्वतंत्र मनसबदार थीं। कलांतर में मुगलों ने रणथंभौर को जयपुर रियासत को सौंप दिया। जिसके बाद जयपुर के शासक इन कोटड़ियों पर भी अपना आधिपत्य जमाने लगे, लेकिन ये कोटड़ियां उनके साथ जाने को तैयार नहीं हुईं। ऐसे में उन्होंने बूंदी के शासकों से मदद मांगी, लेकिन बूंदी के राजा किन्हीं कारणों से जयपुर रियासत को अपना शत्रु नहीं बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मदद करने से इनकार कर दिया।
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कोटा ने दिया आश्रय

बूंदी के इनकार के बाद कोटड़ी वाले सन 1761 में कोटा आए और कोटा राजपरिवार का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। जयपुर के राजाओं को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने कोटा से इन कोटड़ियों को हासिल करने के लिए जयपुर से एक विशाल सेना कोटा की ओर भेजी। जयपुर की सेना चम्बल नदी को पार करते हुए ढ़ीपरी होते हुए मांगरोल के पास भटवारा तक आ गई। जयपुर की सेनाएं जब भी लड़ाई पर जाती उनका शाही पचरंगा झंडा इस सेना के आगे-आगे चलता था।
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जयपुर के तोपखाने ने ढहाया कहर

कोटा के महाराव शत्रुशाल को जब इसकी खबर लगी तो उन्होंने राज्य के मुसाहिब आला अखयराम पंचोली को मुख्य सेनापति बनाकर जयपुर की सेनाओं का मुकाबला करने के लिए भेजा। अखयराम के साथ धामई जसकरन और राजकुमार गुमान सिंह की पत्नी के 19 वर्षीय भाई राजकुमार झाला जालिम सिंह जयपुर की सेनाओं का मुकाबला करने भटवारा पहुंच गए। उस दौर की लड़ाईयों में जयपुर के तोपखाने की तूती बोलती थी। कोटा की सेनाओं के साथ भी जब पहले दिन का युद्ध हुआ तो जयपुर के इस तोपखाने ने कहर ढहा दिया। कोटा की सेनाओं को मजबूरन पीछे हटना पड़ा। पहले दिन की लड़ाई खत्म होने के बाद जब रात में महाराव के भाई-बंधु और प्रमुख हाड़ा सामंतों एक साथ बैठे तो सभी यही सोच रहे थे कि हार गए तो बहुत बदनामी होगी।
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कोटा की सेनाओं ने जयपुर से छीना शाही पचरंगा ध्वज

बैठक में तय हुआ कि किसी भी सूरत में जयपुर की सेनाओं के तोपखाने को नष्ट करना होगा। तय रणनीति के मुताबिक जब दूसरे दिन का युद्ध शुरू हुआ तो कोटा के लड़ाकों ने एक साथ जयपुर के तोपखाने पर धावा बोल दिया। विशाल तोपखाने के दंभ में डूबी जयपुर की सेना ने इस तरह के हमले की उम्मीद भी नहीं की थी। कोटा की सेनाओं ने कुछ ही देर में जयपुर का तोपखाना तहस नहस कर दिया। तोपखाना नष्ट होते ही जयपुर की सेना में भगदड़ मच गई और वह अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। इतिहासकार बताते हैं कि जयपुर की सेनाओं ने 14-15 किमी से पहले मुडकर भी नहीं देखा। जयपुर की सेना का पीछा करती कोटा की सेनाओं ने इस लड़ाई में उनका शाही पचरंगा झंडा छीन लिया। इस हार से जयपुर के राजाओं की बड़ी बदनामी हुई।
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दशहरे में रावण के सिर पर लगाया जाता पचरंगा झंडा

जयपुर रियासत का दंभ तोड़ने वाली इस जीत को यादगार बनाने के लिए महाराव शत्रुशाल ने जयपुर के शाही पचरंगे झंडे को रावण के सिर पर लगवाना शुरू कर दिया। कोटा के महाराव जब रावण का वध करने दशहरा मैदान जाते तो इस पचरंगा झंडे लगे रावण पर तीर चलाते। जो देखते ही देखते रावण के साथ-साथ जयपुर रियासत के दंभ के अंत का प्रतीक बन गया।
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महाराव भीम सिंह ने लौटाया जयपुर का मान

अंग्रेजों से आजादी के बाद जब रियासतों का विलय शुरू हुआ तो कोटा के महाराव भीम सिंह को एकीकृत राजस्थान का पहला राजप्रमुख बनाया गया। महाराव भीम सिंह बेहद दूरदृष्टि वाले व्यक्ति थे और वह जानते थे कि जब तक जयपुर के शाही पचरंगा ध्वज को कोटा के दशहरे में रावण के सिर पर लगाया जाता रहेगा, तब तक राजस्थान में विलय करने वाली रियासतों का मनमुटाव खत्म नहीं होगा। महाराव भीम सिंह की इसी सोच के सन 1948 में आखिरी बार कोटा के शाही दशहरे में जयपुर के पचरंगे झंडे के साथ रावण का वध हुआ। इसके बाद महाराव भीम सिंह ने इस झंडे को धुलवा कर इस्त्री कराया। कोटा रियासत के कार्यालय अधीक्षक देवी शंकर को साथ लेकर महाराव भीम सिंह जयपुर पहुंचे और जयपुर के राजा मानसिंह को उनका 187 साल पहले खोया मान वापस लौटा दिया।
(जैसा कि इतिहासकार प्रो. जगत नारायण ने संवादाता विनीत सिंह को बताया)

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