कोटा के शाही दशहरे मेले की दस कहानियांः 124 साल से कायम है परंपराओं का आकर्षण
कोटड़ियों पर कब्जे को लेकर छिड़ी जंग कोटा और बूंदी के बीच इंद्रगढ़, खातोली, बलवन, आंतरदाह, करवर, करवार और पीपलदाह समेत हाड़ाओं की 8 कोटड़ियां थीं। रणथंभौर परगने में आने वाली ये कोटड़ियां मुगलों की स्वतंत्र मनसबदार थीं। कलांतर में मुगलों ने रणथंभौर को जयपुर रियासत को सौंप दिया। जिसके बाद जयपुर के शासक इन कोटड़ियों पर भी अपना आधिपत्य जमाने लगे, लेकिन ये कोटड़ियां उनके साथ जाने को तैयार नहीं हुईं। ऐसे में उन्होंने बूंदी के शासकों से मदद मांगी, लेकिन बूंदी के राजा किन्हीं कारणों से जयपुर रियासत को अपना शत्रु नहीं बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मदद करने से इनकार कर दिया।
कोटा के शाही दशहरे मेले की 10 कहानियांः छोटो छै…यो कोटो छै…दशहरे को शाही मेलो छै
कोटा ने दिया आश्रय बूंदी के इनकार के बाद कोटड़ी वाले सन 1761 में कोटा आए और कोटा राजपरिवार का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। जयपुर के राजाओं को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने कोटा से इन कोटड़ियों को हासिल करने के लिए जयपुर से एक विशाल सेना कोटा की ओर भेजी। जयपुर की सेना चम्बल नदी को पार करते हुए ढ़ीपरी होते हुए मांगरोल के पास भटवारा तक आ गई। जयपुर की सेनाएं जब भी लड़ाई पर जाती उनका शाही पचरंगा झंडा इस सेना के आगे-आगे चलता था।
कोटा के शाही दशहरे मेले की 10 कहानियांः परंपराओं छूटी तो खत्म हुआ अनूठापन
जयपुर के तोपखाने ने ढहाया कहर कोटा के महाराव शत्रुशाल को जब इसकी खबर लगी तो उन्होंने राज्य के मुसाहिब आला अखयराम पंचोली को मुख्य सेनापति बनाकर जयपुर की सेनाओं का मुकाबला करने के लिए भेजा। अखयराम के साथ धामई जसकरन और राजकुमार गुमान सिंह की पत्नी के 19 वर्षीय भाई राजकुमार झाला जालिम सिंह जयपुर की सेनाओं का मुकाबला करने भटवारा पहुंच गए। उस दौर की लड़ाईयों में जयपुर के तोपखाने की तूती बोलती थी। कोटा की सेनाओं के साथ भी जब पहले दिन का युद्ध हुआ तो जयपुर के इस तोपखाने ने कहर ढहा दिया। कोटा की सेनाओं को मजबूरन पीछे हटना पड़ा। पहले दिन की लड़ाई खत्म होने के बाद जब रात में महाराव के भाई-बंधु और प्रमुख हाड़ा सामंतों एक साथ बैठे तो सभी यही सोच रहे थे कि हार गए तो बहुत बदनामी होगी।
कोटा के शाही दशहरा मेले की 10 कहानियांः 9 दिन चलता था असत्य पर सत्य की जीत का शाही जश्न
कोटा की सेनाओं ने जयपुर से छीना शाही पचरंगा ध्वज बैठक में तय हुआ कि किसी भी सूरत में जयपुर की सेनाओं के तोपखाने को नष्ट करना होगा। तय रणनीति के मुताबिक जब दूसरे दिन का युद्ध शुरू हुआ तो कोटा के लड़ाकों ने एक साथ जयपुर के तोपखाने पर धावा बोल दिया। विशाल तोपखाने के दंभ में डूबी जयपुर की सेना ने इस तरह के हमले की उम्मीद भी नहीं की थी। कोटा की सेनाओं ने कुछ ही देर में जयपुर का तोपखाना तहस नहस कर दिया। तोपखाना नष्ट होते ही जयपुर की सेना में भगदड़ मच गई और वह अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। इतिहासकार बताते हैं कि जयपुर की सेनाओं ने 14-15 किमी से पहले मुडकर भी नहीं देखा। जयपुर की सेना का पीछा करती कोटा की सेनाओं ने इस लड़ाई में उनका शाही पचरंगा झंडा छीन लिया। इस हार से जयपुर के राजाओं की बड़ी बदनामी हुई।
कोटा के शाही दशहरे मेले की 10 कहानियांः लाखों आंखों में सजता है करोड़ों का मेला
दशहरे में रावण के सिर पर लगाया जाता पचरंगा झंडा जयपुर रियासत का दंभ तोड़ने वाली इस जीत को यादगार बनाने के लिए महाराव शत्रुशाल ने जयपुर के शाही पचरंगे झंडे को रावण के सिर पर लगवाना शुरू कर दिया। कोटा के महाराव जब रावण का वध करने दशहरा मैदान जाते तो इस पचरंगा झंडे लगे रावण पर तीर चलाते। जो देखते ही देखते रावण के साथ-साथ जयपुर रियासत के दंभ के अंत का प्रतीक बन गया।