बात 1982 के की है। जब मैने कवि सम्मेलनों में जाना शुरू कर दिया था। हाड़ौती में हुए अनेक कवि सम्मेलनों में मुझे सराहा गया। 20 अक्टूबर 1983 को कोटा दशहरा के राजस्थानी कवि सम्मेलन में अपने शहर के श्रोताओं ने मुझे प्यार दिया। तब से अब तक चंबल में होकर बहुत पानी गुजर गया। तब मेले में राजस्थानी कवि सम्मेलन राजस्थानी भाषा का नहीं था। दो-तीन वर्ष बाद, प्रेमजी प्रेम के प्रयास से ‘अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा’ कवि सम्मेलन शुरू हुआ। जो आज मेले के सबसे लोकप्रिय आयोजनों में है।
कोटा में आधुनिक दशहरा मेला महाराव भीमसिंह द्वितीय (1889 से 1940 ई.) के शासन में शुरू हुआ। तब मेला देश की प्रमुख व्यापारिक गतिविधियों में शामिल रहा। आमजन की सहभागिता बढ़ाने के लिए मेले में सांस्कृतिक गतिविधियों को जोडऩे की बात हुई तो 1951 में पहली बार अखिल भारतीय भजन-कीर्तन प्रतियोगिता के साथ इसका सूत्रपात हुआ। तीन साल बाद अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरा आ जुड़े। धीरे धीरे कार्यक्रम बढ़ते गये। 1960 में पहली बार फिल्मी कार्यक्रम हुआ।
विज्ञापन के लिए फ्री बांटी थी पूड़ी-सब्जी मेले की व्यावसायिक लोकप्रियता ऐसी थी कि देश की मशहूर वनस्पति घी निर्माता कंपनी ने अपने उत्पाद् का प्रचार करने के लिए पूरे मेले में फ्री पूड़ी-सब्जी बांटी थी। 1968 में दाऊदयाल जोशी नगर परिषद अध्यक्ष थे। मेला प्रांगण में स्थायी मंच की बात हुई तो स्मारिका का प्रकाशन किया गया। इसके विज्ञापन से हुई आय से श्रीराम रंगमंच बना, जहां आज सभी बड़े कार्यक्रम होते हैं।
मेले ने दिलाया मुकाम 1951 में प्रारंभ हुआ सांस्कृतिक चेतना का रथ बढ़ा तो काफिले में एक के बाद एक अनेक कार्यक्रम जुड़ते गये। आज कोटा दशहरा मेला उन बिरले सांस्कृतिक मंचों में है, जिस पर एक महीने लगातार कार्यक्रम होते हैं। यदि देशभर में हाड़ौती के करीब एक दर्जन कवि लोकप्रिय हैं तो इसमें मेले के मंच का योगदान सबसे ज्यादा है। बहरहाल, हिंदी और उर्दू काव्यपरंपरा के लगभग सभी समकालीन बड़े नाम यहां पढ़ चुके हैं।
जिस तेजी से संकट आया उसी तेजी से गया 122 साल में ऐसे अवसर कम आये हैं जब मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की परंपरा रुकी हो। 1956 में दंगे हुए तब ब्लैक आउट करके रावण वध किया गया था। 1989 में फिर तनाव के चलते सांस्कृतिक कार्यक्रम रद्द करने पड़े। 1966 में पाश्र्वगायक मुकेश के कार्यक्रम के दौरान पुलिस और छात्रों में लाठी-भाटा जंग हुआ। हालांकि यह सब जितना तेजी से हुआ उतनी तेजी से हालात सामन्य हुए।
छोटो छै…यो कोटो छै संस्कृति कर्म हमें समाज और समय को समझने तथा विरासत के गौरव को आत्मसात करने की समझ देता है। यह सच है कि कलाओं का आभिजात्य बाजारवाद सांस्कृतिक परंपरा में कई बार खींसे निपोरते दिखता है लेकिन सच यह भी है कि यह परंपरा उस भावबोध से जोड़ती है, जिसे लेकर लिखा गया प्रेमजी प्रेम का गीत 70 के दशक में मेले के कविसम्मेलन से गूंजा और लोकप्रिय हुआ था- ‘पानी की किरपा भारी, चंबल म्हारी महतारी, यो दिल्ली-बंबई-कलकत्ता सूँ भल्याँ ही छोटो छै…यो कोटो छै’
(जैसा कि साहित्यकार अतुल कनक ने संवाददाता विनीत सिंह को बताया)