विलक्षण भारतीय निर्माण कला की निशानी चंद्रेसल मठ का मूल स्वरूप अब शायद ही लौटे। 1100 साल पुरानी इंटरलॉकिंग कंस्ट्रक्शन साइट को ध्वस्त करने से पहले लाइन ड्राइंग, पत्थरों की नंबरिंग और फोटोग्राफिक एविडेंस तैयार नहीं किए गए। लिहाजा, धवस्त सभामंडप को मूल स्वरूप में लाना असंभव होगा।
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पुरातात्विक भवन निर्माण कला के जानकार और आर्किलॉजिकल फोटोग्राफर वीरेंद्र प्रताप अहूजा बताते हैं कि निर्माण कला के मामले में चंद्रेसल शैव मठ की ख्याति विश्वभर में थी। यह परमार-नागर शैली में निर्मित है। पत्थरों को जोडऩे के लिए गारे (मिट्टी के घोल), चूने और सीमेंट आदि का इस्तेमाल नहीं किया गया। पूरा मठ पत्थरों की इंटरलॉकिंग कर बना।
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कोणों से बनता है केन्द्र
आहूजा बताते हैं कि पत्थरों का क्रम खत्म होने से अब मूल स्वरूप लौटाना असंभव होगा। सभा मंडप का स्वरूप बिगडऩे का असर पूरे मंदिर पर दिखाई देगा, क्योंकि षोडश शैली 16 कोणों पर टिकी होती है। इस निर्माण का हर कोण 22.5 डिग्री पर स्थापित है और सभी कोणों के मिलने पर ही मंदिर का केंद्र स्थापित हो पाता है।
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चार देवालयों की शृंखला वाले चंद्रेसल मठ के मुख्य शिव मंदिर का निर्माण दुर्लभ षोडश पहलू योजना निर्माण शैली से किया गया था। इंटरलॉकिंग सिस्टम पर आधारित इस शैली में कौन सा पत्थर कहां लगाया गया, इसका क्रम (नंबरिंग) बेहद मायने रखता है। पुरातत्व विभाग ने जीर्णोद्धार के दौरान सभा मंडप तुड़वा कर ढेर लगा दिया। इससे इनकी नंबरिंग बिगड़ गई।
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