इतिहासकारों ने जताई नाराजगी
इतिहासकार डॉ. जगत नारायण श्रीवास्तव ने कहा कि धरोहरों के संरक्षण की बजाय पुरातत्व अधिकारी उनका मूल स्वरूप ही नष्ट कर दिया। सभामंडप की ईंटें और पत्थर एक-एक करके उतारे जाने थे। जिन पर नंबरिंग भी करनी थी। ताकि उन्हें दुबारा उसी क्रम में लगाकर 1100 साल पुरानी धरोहर को मूल स्वरूप में लाया जा सकता। अब यह संभव नहीं है। जीर्णोद्धार शुरू करने से पहले मंदिर परिसर में रखी दुर्लभ प्रतिमाओं, शिवलिंगों और अन्य धरोहरों को एक जगह संरक्षित किया जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें मलवे में फेंक कर अफसरों ने इतिहास के साथ खिलवाड़ किया। धरोहरों का रिकॉर्ड तैयार नहीं किया गया तो मलबे के साथ उनके चोरी होने की आशंका भी बढ़ गई है।
ऐतिहासिक महत्व
नौंवी सदी के आखिर में चंद्रलोई नदी के तट को नागा साधुओं ने अपनी तपोस्थली के रूप में चुना था। दसवीं सदी में इस मठ की ख्याति नागाओं के हर गढ़ में पहुंच गई और देश भर से नागा साधु दीक्षा लेने के लिए यहां आने लगे। 1.2 एकड़ में फैले मठ में चार प्रमुख मंदिर है। मुख्य मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और एक मंदिर भगवान विष्णु को। चंद्रेसल मठ की महत्ता का अंदाजा पद्मश्री इतिहासकार डॉ. वीडी वाकड़ के उस उल्लेख से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि चंद्रेसल ही विश्व में एकमात्र ऐसी जगह है, जहां 2000 साल पुराने शुतुरमुर्ग के अंडों पर पेंटिंग के अवशेष मिले हैं।
आय पर ध्यान , मरम्मत पर नहीं
सरकार ने मंदिर की लाखों रुपए की आय पर रिसीवर तो बिठा दिया, लेकिन इसके जीर्णोद्धार की सुध नहीं ली। पुरातत्व विभाग ने भी सिर्फ संरक्षित स्मारकों की श्रेणी में इसे शामिल कर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। देखरेख न होने के चलते मंदिर बेहद जर्जर हो गया और 2014 में मुख्य मंदिर का गुंबद भी गिर गया था। राजस्थान पत्रिका ने जब प्रमुखता से यह मुद्दा उठाया तो सरकार ने इसके जीर्णोद्धार के लिए 50 लाख रुपए का बजट जारी किया।