शिलांग. राजस्थानी उद्यमियों,बिहार, त्रिपुरा के मजदूरों व छोटे कारोबारियों से भरे पड़े शिलांग के पुलिस बाजार इलाके में बीच बीच में चुनावी शोर सुनाई देता है। राजनीतिक दलों के झंडे दिखते हैं फिर हटा दिए जाते हैं। राज्य के इस सबसे बड़े शॉपिंग व व्यवसायिक केन्द्र में जीवन अपने ढर्रे पर ही चलता है। राज्य में चुनावी हवा किस ओर बह रही है पूछने पर होटल संचालक राजतिलक शर्मा कहते हैं मेघालय में तो मिली जुली सरकार का ही ट्रेंड रहा है। इसलिए इस बार भी वही दोहराया जाएगा। राजस्थान के चुरु से शिलांग आकर बसे शर्मा को इस बात की टीस है कि मेघालय की सत्ता में चाहे कोई दल भी आ जाए गैर आदिवासियों को भला कोई नहीं करेगा। राज्य की आबादी के 80 फीसदी आदिवासी मतों पर सभी राजनीतिक दलों का फोकस रहता है। बाकी के 20 फीसदी मतदाता यहां न तो वोट बैंक हैं और न ही किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में उन्हें जगह दी जाती है।
——-
चुनाव के बाद डोखार का मुद्दा फिर उठने की आशंका
शिवरात्री के अवसर पर शिलांग के महादेवखोला में लगे मेले में रेहड़ी लगाने वाले ज्यादातर हॉकर बिहार के मोतिहारी से हैं। कोई 15 साल से कोई तो 35 साल से शिलांग में छोटी-मोटी दुकान लगाकर अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुगाड़ कर रहा है। ऐसे ही एक रेहड़ी वाले किशन कुमार कहते हैं कि अभी चुनाव को लेकर शांति है। चुनाव बीतेगा तो फिर डोखार का मुद्दा उठाया जाएगा। डोखार का मुद्दा क्या है यह पूछने पर उन्होंने बताया कि खासी व राज्य के अन्य कुछ आदिवासी समुदायों को छोड़कर बाकी के समाज डोखार कहे जाते हैं। किशन बताते हैं पिछले पांच सालों में ऐसा कई बार हुआ है। आदिवासी समर्थक संगठनों ने बड़ी बड़ी रैलियां निकालीं। उनमें बहुत से उपद्रवी भी शामिल होते हैं। गैर आदिवासियों पर जुल्म किया गया। प्रशासन का काम केवल इंटरनेट पर बंदी लगाने से खत्म हो गया। हुड़दंगियों ने गैर आदिवासियों को जहां तहां निशाना बनाया। पुलिस-प्रशासन ने गैर आदिवासियों की बात नहीं सुनी। राज्य के राजनीतिक दल भी इसपर खामोश रहते हैं। चुनाव में भी उनके मुद्दों की कोई चर्चा नहीं होती।
———-
न लड़कों को नौकरी मिलेगी न खरीद पाएंगे घर
क्षमता के बावजूद शिलांग में घर नहीं खरीद पाने का मलाल अधिकांश गैर आदिवासियों को होता है। कोचिंग टैक्सी स्टैंड में मिले झारखंड के मधुसूदन प्रसाद बताते हैं कि वे पच्चीस सालों से शिलांग में है। उनके दोनों बेटों ने बीएड भी किया लेकिन उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। शिलांग में गैर आदिवासियों का जमीन खरीदना और सरकारी नौकरी पाना लगभग असंभव हैं। बेटे किसी तरह ट्यूशन पढ़ाकर रोजगार करते हैं। उनका पूरा परिवार तीन अलग अलग जगहों पर किराये के मकान में रह रहा है। उनके मुद्दों की बात करने वाला मेघालय में कोई भी दल नहीं है।
——-
पंद्रह दिनों तक बंद रखी थी दुकान
त्रिपुरा से आकर शिलांग में दस साल से सेलून चला रहे संतोष साहा बताते हैं कि गैर आदिवासियों का मेघालय की राजनीति में कोई भी प्रभाव नहीं है। बीस फीसदी वोट कम नहीं होते लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को इस वोट बैंक की चिंता नहीं है। पिछली बार हुई अशांति के दौरान उन्हें पंद्रह दिनों तक दुकान बंद रखनी पड़ी थी। डर का माहौल था सो अलग।
——–
इनर लाइन परमिट से समस्या का समाधान
मेघालय की सत्ता मे शरीक रही यूडीपी के उपाध्यक्ष एलांट्री एफ ढाकर कहते हैं आदिवासी संगठन इनर लाइन परमिट लागू करने की मांग पर आंदोलन करते हैं। केन्द्र सरकार आइएलपी की प्रक्रिया शुरू कर दे। गैर आदिवासियों की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। पार्टी के घोषणापत्र में भी आइएलपी लागू करने का वायदा किया गया है।
——-
चुनाव के बाद डोखार का मुद्दा फिर उठने की आशंका
शिवरात्री के अवसर पर शिलांग के महादेवखोला में लगे मेले में रेहड़ी लगाने वाले ज्यादातर हॉकर बिहार के मोतिहारी से हैं। कोई 15 साल से कोई तो 35 साल से शिलांग में छोटी-मोटी दुकान लगाकर अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुगाड़ कर रहा है। ऐसे ही एक रेहड़ी वाले किशन कुमार कहते हैं कि अभी चुनाव को लेकर शांति है। चुनाव बीतेगा तो फिर डोखार का मुद्दा उठाया जाएगा। डोखार का मुद्दा क्या है यह पूछने पर उन्होंने बताया कि खासी व राज्य के अन्य कुछ आदिवासी समुदायों को छोड़कर बाकी के समाज डोखार कहे जाते हैं। किशन बताते हैं पिछले पांच सालों में ऐसा कई बार हुआ है। आदिवासी समर्थक संगठनों ने बड़ी बड़ी रैलियां निकालीं। उनमें बहुत से उपद्रवी भी शामिल होते हैं। गैर आदिवासियों पर जुल्म किया गया। प्रशासन का काम केवल इंटरनेट पर बंदी लगाने से खत्म हो गया। हुड़दंगियों ने गैर आदिवासियों को जहां तहां निशाना बनाया। पुलिस-प्रशासन ने गैर आदिवासियों की बात नहीं सुनी। राज्य के राजनीतिक दल भी इसपर खामोश रहते हैं। चुनाव में भी उनके मुद्दों की कोई चर्चा नहीं होती।
———-
न लड़कों को नौकरी मिलेगी न खरीद पाएंगे घर
क्षमता के बावजूद शिलांग में घर नहीं खरीद पाने का मलाल अधिकांश गैर आदिवासियों को होता है। कोचिंग टैक्सी स्टैंड में मिले झारखंड के मधुसूदन प्रसाद बताते हैं कि वे पच्चीस सालों से शिलांग में है। उनके दोनों बेटों ने बीएड भी किया लेकिन उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। शिलांग में गैर आदिवासियों का जमीन खरीदना और सरकारी नौकरी पाना लगभग असंभव हैं। बेटे किसी तरह ट्यूशन पढ़ाकर रोजगार करते हैं। उनका पूरा परिवार तीन अलग अलग जगहों पर किराये के मकान में रह रहा है। उनके मुद्दों की बात करने वाला मेघालय में कोई भी दल नहीं है।
——-
पंद्रह दिनों तक बंद रखी थी दुकान
त्रिपुरा से आकर शिलांग में दस साल से सेलून चला रहे संतोष साहा बताते हैं कि गैर आदिवासियों का मेघालय की राजनीति में कोई भी प्रभाव नहीं है। बीस फीसदी वोट कम नहीं होते लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को इस वोट बैंक की चिंता नहीं है। पिछली बार हुई अशांति के दौरान उन्हें पंद्रह दिनों तक दुकान बंद रखनी पड़ी थी। डर का माहौल था सो अलग।
——–
इनर लाइन परमिट से समस्या का समाधान
मेघालय की सत्ता मे शरीक रही यूडीपी के उपाध्यक्ष एलांट्री एफ ढाकर कहते हैं आदिवासी संगठन इनर लाइन परमिट लागू करने की मांग पर आंदोलन करते हैं। केन्द्र सरकार आइएलपी की प्रक्रिया शुरू कर दे। गैर आदिवासियों की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। पार्टी के घोषणापत्र में भी आइएलपी लागू करने का वायदा किया गया है।