श्रीकृष्ण की भक्त थीं मीरा
भगवान श्री कृष्ण की अनन्य भक्त मीरा बाई ने मेवाड़ चौकड़ी के राज रतन सिंह के घर में 1498 में जन्म लिया था। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि मीरा बाई को बचपन से श्रीकृष्ण के नाम अपना जीवन कर दिया। 1516 में मीरा का विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से हो गया। विवाह के बाद भी वह श्री कृष्ण की आराधना में लगी रहती थीं। लेकिन मेवाड़ के राजवंश को पसंद नहीं था कि उनकी रानी वैरागिनी की तरह जीवन बिताए और उन्हें मारने की साजिश रची, फिर भी उन्हें खरोंच तक नहीं आई और एकदिन वो घर छोड़कर सीधे शिवराजपुर आ गई।
फिर नहीं उठा पाई मूर्ति
मंदिर के पुजारी ने बताया कि 15 वीं सदी में जब मीरा ने राज घराना छोड़ तो अपने साथ अपने आराध्य श्रीकृष्ण को साथ लेकर चलीं। शिवराजपुर आने पर कई दिन गंगा किनारे रुकीं। बताते हैं कि जब मीरा यहां से जाने लगी तो गिरधर गोपाल की मूर्ति को उठाने की कोशिश की। मूर्ति नहीं उठी तो मीरा ने मान लिया कि यह स्थान उनके आराध्य को बहुत मनोरम लगा। इसके बाद मीरा मूर्ति यहीं पर स्थापित कर चलीं गई। पुजारी बताते हैं कि यहां हरदिन सैकड़ों भक्त आते हैं और भगवान श्रीकृष्ण उनकी मन्नत पूरी करते हैं।
तब बालक रूप में दिखे श्रीकृष्ण
मंदिर के पुजारी पुरुषोत्तम बिहारी द्विवेदी ने बताया कि जब बाबा पुजारी थे तो उस समय बाबा व उनके भाई के बीच विवाद हो गया। इस पर दो में से किसी ने भी गिरधर गोपाल जी को भोग नहीं लगाया। तब चांदी का कटोरा लेकर बालक रूप बना गिरधर गोपाल जी ने लाला हलवाई के यहां से भोग का प्रसाद लाए। हलवाई मंदिर आए और कटोरा दिखाकर पूरी घटना बताई तो सभी को बहुत ही पश्चाताप हुआ था। तब से कभी ऐसा नहीं हुआ कि भगवान को भोग न लगा हो।
चित्तौड़ राज घराने से अता है पैसा
मंदिर में पुजारी पुरुषोत्तम बिहारी दीक्षित ने बताया कि मंदिर में प्रसाद के लिए चित्तौड़ राज घराने से खर्च आता था। यह खर्च आना अब बंद हो गया है। मंदिर के नाम रूरा में दस बीघे जमीन है। इसी से हुई आय पर प्रसाद व मंदिर की देखरेख का काम होता है। बताया कि विश्व में और कहीं भी अष्टभुजीय ऐसी अद्वतीय मूर्ति गिरधर गोपाल जी की नहीं है। कार्तिक भर लोग जब भी गंगा स्नान को आते हैं तो यहां आकर गिरधर गोपाल जी के दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं।