कांकेर

खुशियों के पर्व दीपोत्सव की धूम आज, झालर और बत्तियों से सजा बाजार

खुशियों के पर्व दीपोत्सव की धूम आज

कांकेरNov 07, 2018 / 11:25 am

Deepak Sahu

खुशियों के पर्व दीपोत्सव की धूम आज, झालर और बत्तियों से सजा बाजार

कांकेर. दीपावली तो हर साल आती है और नई उमंग, नया आनंद देकर जाती है, किन्तु जब हम 60-70 वर्ष पुरानी दीपावली को याद करते हैं, तो तब और अब की दीपावली में बहुत अंतर है। तब मिट्टी के पवित्र दीपों की जगह अब चाइना ले लिया है। आतिशबाजी देशी विदेशी हो गई है। घरों में मां बहनों के हाथों बनी मिठाइयों के स्थान अब होटलों की मिलावटी मिठाइयां ले ली हैं। घर के जवान सदस्य अपने बच्चों के साथ दीपावली नहीं मनाते, सीधे जुए-सट्टे के फड़ में पहुंच जाते हैं।

जीत-हार, घर का माहौल खराब कर देता है। यहां की पुरानी दीपावली आज भी बुजुर्गों को याद है। उस समय बिजली के बाद भी झालर लगाना लोगों को पसंद नहीं था। मिट्टी के दीपों के लिए टोरा तेज बस्तर से आता था। दियों की मांग इतनी अधिक रहती थी कि स्थानीय कुंभकार नहीं बना पाते थे, तब ओडिशा से विभिन्न डिजाइनों के दीप खूब आते थे, मंदिरों में मिट्टी के दीपों के साथ पीतल के दीप भी जलाए जाते थे। स्थानीय पिंजारे रूई को धुनकर उसकी बातियां बनाकर बाजार में बेची जाती थी। देशी पटाखा दुर्ग के नामी आतिशबाज के यहां से आते थे। आज तो सरकार पटाखे बंद नहीं कर पा रही लेकिन उस जमाने में रात दस बजे के बाद धड़ाम धुडुम बंद हो जाता था।
कांकेर के नागरिक घरों से निकलकर पड़ोसियों, मित्रों, बुजुर्गों से मिलने और दीपावली तथा नए संवत की बधाइयां देने जाते थे। ग्यारह बजे तक लोग रोशनी देखते हुए दीपावली प्रसाद खाते हुए वापस लौटते थे। होटल से ज्यादा घर में बनी छत्तीसगढ़ी मिठाइयां खुरमी अनरसा, गुलगुला तथा खाजा पंसद अपनी थी। ठेठरी, मुरकू, मोटी सेव, कई प्रकार की भजिए-पठौड़े भी शौक से खाए जाते थे। गांव की होटलों का तो नाम ही भजिया-दुकान था।
दीपावली पूजा के मुहूर्त के लिए कांकेर के लोग कैलेंडर पंचाग कम ही देखते थे। रियासत के राजगुरु लोकनाथ बाना ने जो कह दिया, वहीं शुभ-मुहूर्त माना जाता था। उनकी ऐसी धाक थी कि उनके देहांत के पश्चात ही कांकेर में बाबूलाल कैलेंडर, पंचाग आदि देखने की जरूरत लोगों को महसूस हुई थी। दीपावली का सारा सामान कांकेर के लोग राजापारा स्थित सेठ हबीब तथा करीम की दुकानों से ही लिया करते थे।
ये दुकानें उन दिनों सुपर मार्केट या डिपार्ट मेंटल स्टोर्स से भी बढक़र थी। दुकानदार ग्राहकों के साथ आने वाले बच्चों की जेबें पीपरमेन्ट, चाकलेटों से भर देते थे और बिस्कुट का पैकट हाथ में थमा देते थे। आज भी दीपावली की धूम तो यहां बहुत होती है लेकिन अब वो पहले जैसा अपनापन कहां रह गया है। अब के लोग अपनी खुशी देखते हैं। पहले के लोग सबकी खुशी में अपनी खुशी देखते थे।

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