कांकेर के नागरिक घरों से निकलकर पड़ोसियों, मित्रों, बुजुर्गों से मिलने और दीपावली तथा नए संवत की बधाइयां देने जाते थे। ग्यारह बजे तक लोग रोशनी देखते हुए दीपावली प्रसाद खाते हुए वापस लौटते थे। होटल से ज्यादा घर में बनी छत्तीसगढ़ी मिठाइयां खुरमी अनरसा, गुलगुला तथा खाजा पंसद अपनी थी। ठेठरी, मुरकू, मोटी सेव, कई प्रकार की भजिए-पठौड़े भी शौक से खाए जाते थे। गांव की होटलों का तो नाम ही भजिया-दुकान था।
दीपावली पूजा के मुहूर्त के लिए कांकेर के लोग कैलेंडर पंचाग कम ही देखते थे। रियासत के राजगुरु लोकनाथ बाना ने जो कह दिया, वहीं शुभ-मुहूर्त माना जाता था। उनकी ऐसी धाक थी कि उनके देहांत के पश्चात ही कांकेर में बाबूलाल कैलेंडर, पंचाग आदि देखने की जरूरत लोगों को महसूस हुई थी। दीपावली का सारा सामान कांकेर के लोग राजापारा स्थित सेठ हबीब तथा करीम की दुकानों से ही लिया करते थे।
ये दुकानें उन दिनों सुपर मार्केट या डिपार्ट मेंटल स्टोर्स से भी बढक़र थी। दुकानदार ग्राहकों के साथ आने वाले बच्चों की जेबें पीपरमेन्ट, चाकलेटों से भर देते थे और बिस्कुट का पैकट हाथ में थमा देते थे। आज भी दीपावली की धूम तो यहां बहुत होती है लेकिन अब वो पहले जैसा अपनापन कहां रह गया है। अब के लोग अपनी खुशी देखते हैं। पहले के लोग सबकी खुशी में अपनी खुशी देखते थे।