पेड़ों की कटाई पर रोक का कानूनी प्रावधान भी जोधपुर में 293 साल पहले ही कर दिया गया था। 11 सितंबर, 1730 को जोधपुर के पास खेजड़ली गांव में पेड़ों की रक्षा के लिए अमृता देवी विश्नोई के नेतृत्व 363 लोगों के प्राणोत्सर्ग की स्मृति में हर साल 11 सितंबर को देश में राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है। अपने महल के लिए खेजड़ी के पेड़ कटवा रहे राजा अभय सिंह ने उस समय हुई बदनामी के चलते न केवल अपने सैनिकों को वापस बुला लिया, बल्कि दंडित भी किया। साथ ही समूचे मारवाड़ में बिश्नोई बाहुल्य क्षेत्र में कोई पेड़ नहीं काटने का फरमान भी जारी कर दिया। ज्ञात इतिहास में पेड़ काटने पर रोक का यह पहला कानूनी प्रावधान है।
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राव जोधा के पिता रिड़मल को महाराणा कुंभा के काल में चित्तौड़गढ़ में धोखे से मार दिया था। जोधा भी मुकाबले के लिए फौज के साथ नाडोल तक पहुंच गया। तब सांखला नापा ने कुंभा को समझाया। कुंभा ने संधि की सलाह मान ली। इस पर सांखला नापा जोधा के शिविर में पहुंचा और उसने संधि का प्रस्ताव रखा कि बांवल (बबूल) के पेड़ वाली जमीन जोधा के पास रहेगी और आंवल वाली जमीन महाराणा कुंभा केे पास रहेगी। संधि के साथ ही लड़ाई टल गई। – डॉ. गोविंद सिंह राठौड़, साहित्यकार
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वर्ष 1644 में नागौर और बीकानेर रियासत के बीच बैटल ऑफ वाटरमेलन (मतीरे की राड़) इतिहास में चर्चित है। हुआ यह कि बीकानेर रियासत का सीलवा गांव और नागौर का जाखणियां के बीच दोनों राज्यों की सीमा रेखा थी। सीमा रेखा के निकट सीलवा में उगी मतीरे की एक बेल नागौर की सीमा में फैल गई। इस पर एक मतीरा लगा। भारी भरकम मतीरे पर दोनों रियासतों के लोग दावा करने लगे। उस समय बीकानेर पर राजा करण सिंह और नागौर में राव अमर सिंह का शासन था। इस युद्ध में बीकानेर की फौज विजयी रही और इस मतीरे का स्वाद चखा। विवाद का अनूठा हल वर्ष 1453 में मारवाड़ और मेवाड़ के बीच सीमा विवाद को वनस्पति के आधार हल किया गया। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा और मारवाड़ के राव जोधा के बीच सोजत- पाली में यह संधि ऐतिहासिक संधि हुई थी, जिसे आंवल-बांवल की संधि कहा जाता है। संधि के मुताबिक जिधर आंवल के पौधे है, वह मेवाड़ होगा और जिधर बांवल के पेड़ है, वह मारवाड़ होगा।