जोधपुर

1971 के भारत पाक युद्ध में जोधपुर की रक्षा की थी मां चामुंडा ने, यूं पहनाया था अपने आंचल का कवच

शारदीय नवरात्र प्रारंभ, आज से देवी के विभिन्न रूपों की होगी पूजा
 

जोधपुरSep 21, 2017 / 03:55 pm

Nandkishor Sharma

Maa Chamunda protected Jodhpur in 1971 Indo Pak war

शक्ति रूपेण संस्थिता मानी जाती हैं मां चामुंडा। राजस्थान में चामुण्डा माता के दो मंदिर प्रसिद्ध हैं। एक – दिल्ली व जयपुर राजमार्ग पर जयपुर से 29 किलोमीटर दूर अचरोल के किले के सामने पहाड़ी पर चावण्ड माता या चामुण्डा माता मंदिर और दूसरा जोधपुर के मेहारानगढ़ के शिखर पर स्थापित मां चामुण्डा मंदिर है। प्रसिद्ध सूत्रधार मंडन और परम्परागत पुरातत्व संबंधित वास्तुशास्त्र के अनुसार मंदिर का निर्माण दुर्ग के शीर्ष के एक कोने पर होना शुभ माना जाता था। मेहरानगढ़ का चामुण्डा माता मंदिर इन्हीं प्रचलित मान्यताओं के आधार पर बनाया गया है। मेहरानगढ़ दुर्ग स्थित चामुंडा मंदिर की मूर्ति जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 559 साल विक्रम संवत 1517 में मंडोर से लाकर स्थापित की थी।
चामुंडा मूलत: परिहारों की कुलदेवी और राठौड़ों की इष्टदेवी हैं। राव जोधा ने जब मंडोर छोड़ा, तब चामुंडा को अपनी इष्टदेवी के रूप स्वीकार किया था। सूर्यनगरीवासियों में चामुंडा माता के प्रति अटूट आस्था यह भी है कि सन 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जोधपुर पर गिरे बम को मां चामुंडा ने अपने आंचल का कवच पहना दिया था। तब किले व जोधपुर के कुछ हिस्सों पर कई बम गिराए गए, लेकिन कोई जनहानि या नुकसान नहीं हुआ। जोधपुर शहरवासी इसे आज भी मां चामुण्डा की कृपा ही मानते हैं।
अतीत की बात करें तो किले में 9 अगस्त 1857 को गोपाल पोल के पास अस्सी हजार मन बारूद के ढेर पर बिजली गिरने के कारण विस्फोट के समय राव जोधाकालीन मंदिर क्षत विक्षत हो गया, लेकिन मूर्ति अपने स्थान पर यथावत सुरक्षित रही। तबाही इतनी भीषण थी इसमें 300 लोग मारे गए थे। महाराजा तख्तसिंह उस समय बालसमंद महल में थे। सूचना मिलते ही किले पहुंचे और शहर में राहत और बचाव के प्रयास शुरू किए गए। उस समय तेज बारिश होने के कारण भयंकर आग पर काबू पा लिया गया और मां चामुण्डा की कृपा से अधिक नुकसान नहीं हुआ। महाराजा तख्तसिंह ने मंदिर में शांति हवन पर तब एक लाख रुपए खर्च किए और वैशाख शुक्ल अष्टमी को मुख्य मंदिर का विधिवत निर्माण कार्य शुरू करवाया था। मंदिर में मां लक्ष्मी, मां सरस्वती व बैछराज जी की मूर्तिया स्थापित हैं। बैछराज जी की मूर्ति, जिनकी सवारी मुर्गे पर है, वह महाराजा तखतसिंह अहमदनगर से लाए थे।
मंदिर में खत्म हो गई कई परम्पराएं

नौ साल पूर्व 30 सितम्बर 2008 को मेहरानगढ़ में हुई दुखांतिका के बाद मंदिर में कई परम्पराएं बदल चुकी हैं। उस दुखांतिका में 216 लोग काल कवलित हुए थे। पहले खुद के आशियाने की कामना रखने वाले श्रद्धालु चामुंडा के दर्शन के बाद बसंत सागर में पड़े पत्थरों से छोटा घर बनाते थे, लेकिन अब ऐसी कोई परम्परा नजर नहीं आती है। सालमकोट मैदान में लगने वाला नवरात्रा मेला व निज मंदिर की परिक्रमा भी बंद कर दी गई है। यहां नवरात्रा की प्रतिपदा को महिषासुर के प्रतीक भैंसे और खाजरू की बलि देने की परम्परा थी, जो रियासतों के भारत गणराज्य में विलय और पशु क्रूरता अधिनियम लागू होने के बाद बंद कर दी गई। चैत्रीय व शारदीय दोनों ही नवरात्रा के समय पहले सुबह 5 बजे से रात 8 बजे तक मां चामुण्डा मंदिर दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता था, लेकिन विगत नौ साल से यहां सुबह 7 से शाम 5 बजे तक ही दर्शन की इजाजत है। परकोटे के भीतरी शहर के कई श्रद्धालु आज भी मंदिर के शिखर पर लगी लाइट के दर्शन करने के बाद ही भोजन करते हैं।
जब तक चीलें मंडराती रहेगी दुर्ग सुरक्षित रहेगा…

गढ़ जोधाणे ऊपरे, बैठी पंख पसार, अम्बा थ्हारो आसरो, तूं हीज है रखवार….चावण्ड थ्हारी गोद में, खेल रयो जोधाण, तूं हीज निंगे राखजै, थ्हारा टाबर जाण….आद्यशक्ति मां दुर्गा स्तुति की इन पंक्तियों में कहा गया है कि जोधपुर के किले पर पंख फैलाने वाली माता तू ही हमारी रक्षक है। मारवाड़ के राठौड़ वंशज श्येन (चील) पक्षी को मां दुर्गा का दूसरा स्वरूप मानते हैं। यही कारण है कि मारवाड़ के राजकीय झंडे पर भी मां दुर्गा स्वरूप चील का चिह्न ही अंकित रहा है। मेहरानगढ़ दुर्ग के निर्माता जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के राज्य छिन जाने के 15 साल बाद मां दुर्गा ने स्वप्न में आ कर उन्हें चील के रूप में दर्शन दिए और सफलता का आशीर्वाद दिया। राव जोधा ने स्वप्न में मिले निर्देशों का अनुसरण किया और देखते ही देखते उनका राज्य पुन: कायम हो गया। करीब 559 साल पहले मेहरानगढ़ दुर्ग निर्माण के समय से ही मां दुर्गा रूप में चीलों को चुग्गा देने की परम्परा शुरू की, जो सदियों बाद भी उनके वंशज आज भी नियमित रूप से जारी रखे हुए हैं। कहा जाता है कि राव जोधा को माता ने आशीर्वाद में कहा था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी, तब तक दुर्ग पर किसी भी प्रकार की कोई विपत्ति नहीं आएगी।

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