जानकारों के अनुसार बेलवा रावलगढ़ गांव में तंदूरा बनाने में एकाधिकार के बाद अब कई दशकों से केतु मदा के विश्वकर्मानगर के किरतानियों की ढाणी के कारीगरों में अनूठी पहचान बनाई है। देशभर से बाबा रामदेव मेले में आने वाले भक्तों को वाद्ययंत्र के रूप में केतु के तंदूरों की मांग रहती है। बाबा रामदेवजी के जुम्मे (रात्रि जागरण) का वाद्य यंत्र तंदूरा होता है, जिससे रातभर ‘भक्त वीणा ने तंदूरा धणी रे नोपत बाजे झालर री झणकार पड़े…’ जैसे लोकभजनों में भी तंदूरे का जिक्र करते है। बुजुर्गों के अनुसार 1960 के दशक में केतु मदा गांव के किरतानियों की ढाणी के सुथार जाति के कारीगरों ने तंदूरे का निर्माण शुरू किया था।
ऐसे बनता है तंदूरा तंदूरा रोहिड़े की सूखी लकड़ी व लोहे के तारों से बनाया जाता है। रोहिड़े के तने वाले भाग से तंदूरे का मुख्य हिस्सा कुंडी बनाई जाती है। खातोड़ (बैठक की झोंपड़ी) में कारीगर द्वारा लंबी लकड़ी पर पांच मरणो पर पांच तारों को बांधा जाता है। इसका अगला सिरा घोड़ी (तंदूरे का एक भाग) से जोड़ा जाता है। कुंडी को विभिन्न धातुओं की विशेष डिजाइन से सजाकर व रंगों से आकर्षक रूप दिया जाता है। कारीगर खेताराम सुथार के अनुसार एक तंदूरे का निर्माण करीबन 6 से 10 दिन में पूर्ण होता है।
पांच से दस हजार कीमत तंदूरा व्यवसायी व कारीगर रूपाराम सुथार ने बताया कि सन् 1969 में तंदूरा पंद्रह से बीस रुपए में बिकता था। उस समय व्यवसायी बैलगाड़ी से तंदूरों की बिक्री करने जाते थे। लेकिन बदले समय के साथ आर्थिक हालातों से अब वही तंदूरे पांच से दस हजार की कीमत में बेचे जा रहे है।
50 वर्षों से बेच रहे है तंदूरे तंदूरा व्यवसायी रूपाराम सुथार अब तक 16 हजार तंदूरे बेच चुके है। इनके परिवार की तीन पीढ़ियों से तंदूरा बनाने का काम किया जा रहा है। इन्हें जैसलमेर जिला प्रशासन के साथ तंदूरा व्यवसाय के क्षेत्र में सम्मानित किया जा चुका है। बाबा रामदेव मेले के साथ पुष्कर, सांचोर, तेलवाड़ा, मल्लीनाथ व कई क्षेत्रीय मेलों में तंदूरे की बिक्री करते है। गांव में अब भी कई कारीगर तंदूरे बना रहे है।