याचिकाकर्ता ने दावा किया है कि हाई कोर्ट का मुख्य फैसला जिसमें 10 हजार 323 शिक्षकों की नौकरी को समाप्त कर दिया उसमें न तो कुल संख्या का उल्लेख किया और न ही उन कर्मचारियों के नाम का उल्लेख किया है जिन्हें नौकरी से हटाया जाएगा। कोर्ट का यह फैसला स्पष्ट तौर पर सरकार की रोजगार नीति को प्रभावित कर रहा था, लेकिन जब राज्य सरकार ने नौकरी से हटाने का आदेश जारी किया और बाद में जारी किए गए तदर्थ नियुक्ति में केवल उन शिक्षकों को बुलाया जिन्हें एक विशेष अवधि के दौरान नियुक्त किया गया था।
इसी तरह राज्य सरकार ने इसी नीति के तहत वर्ष 2012 में बिना किसी निर्धारित योग्यता और शिक्षा का अधिकार अधिनियम के मानदंड के 996 विज्ञान के शिक्षकों को नियुक्त किया था, लेकिन उन शिक्षकों की नौकरी नियमित कर दी गई। इसके अलावा राज्य सरकार ने बाद में बीएड और डीएलएड करने वालों को यह सुविधा दी, क्योंकि हाई कोर्ट ने राज्य सरकार की रोजगार नीति को रद्द कर दिया था, इसलिए सभी को दी गई नौकरी को रद्द कर दिया जाना चाहिए था लेकिन राज्य सरकार ने ऐसा नहीं किया।
याचिकाओं पर सुनवाई के बाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति अरिंदम लोध की खंडपीठ ने राज्य सरकार से स्पष्टीकरण देने को कहा है। हालांकि राज्य सरकार के सूत्रों के अनुसार आदेश का तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने पालन किया था और भाजपा-आईपीएफटी सरकार ने स्कूलों को चलाने के लिए तदर्थ शिक्षकों के दो साल बढ़ाने की मांग की क्योंकि राज्य में शिक्षकों की भारी कमी हो रही है।