झांसी

12 साल की उम्र में मारी थी ब्रिटिश थानेदार को थप्पड़, अब एक बार फिर क्रांति की बताते हैं जरूरत

देश की आज़ादी की लड़ाई में जिन लोगों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की, उनके अंदाज भी निराले थे।

झांसीJan 24, 2018 / 02:41 pm

Laxmi Narayan

झांसी. देश की आज़ादी की लड़ाई में जिन लोगों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की, उनके अंदाज भी निराले थे। एक ओर जहां आज़ादी की लड़ाई में देश के क्रांतिकारियों का नेतृत्व करने वाले नामचीन क्रांतिकारी थे तो दूसरी ओर कई ऐसे भी लोग थे जो आज़ादी की लड़ाई में गुमनाम रहते हुए जिंदगी भर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोले रहे। झांसी के वयोवृध्द स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सत्यदेव तिवारी की भी कहानी बेहद निराली है। जब उनकी उम्र केवल 12 साल की थी तब उन्होंने ब्रिटिश थानेदार को थप्पड़ मार दिया था। दरअसल क्रांतिकारियों की मदद करने के आरोप में सत्यदेव तिवारी और उनके पिता को पुलिस कर्मी थाने ले गए थे। थाने में थानेदार सत्यदेव के पिता से गाली गलौज कर रहा था। किशोर सत्यदेव को यह गाली गलौज बर्दाश्त नहीं हुई और थानेदार को थप्पड़ जड़ दिया। इसके बाद उस किशोर उम्र में ही अंग्रेजों की पुलिस के हाथों भयानक रूप से पिटने के बाद उन्होंने भी पिता के रास्ते पर चलते हुए अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की राह पकड़ ली।
दो धाराओं में थी आज़ादी की लड़ाई

पत्रिका से बातचीत में अपने दौर को याद करते हुए वे लड़ाई की दो धाराओं का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि एक संगठन कुर्बानी देने में यकीन करता था और दूसरा वर्ग बुद्धिजीवियों का था और बैठकर आज़ादी हासिल करने के बौद्धिक तरीकों पर विचार करता था। क्रन्तिकारी अंग्रेजों से लड़ते थे और फांसी पर चढ़ जाते थे लेकिन उनका सीधा जनता से सम्पर्क नहीं था। दूसरी ओर बुद्धिजीवियों का संगठन था जो अपने तौर तरीकों से अंग्रेजों को प्रस्ताव देते थे। इसी दौर में अफ्रीका में गांधीजी का शांतिपूर्ण सफल आंदोलन हुआ जिसके बाद नीग्रो को नागरिकता का अधिकार मिला। उस आंदोलन के बाद जब गांधीजी भारत लौटे तो उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को उसी अहिंसक तरीके से आगे बढ़ाने का निर्णय लिया।

क्रांतिकारी पकड़ा देते थे पिस्तौल
आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने की उनकी भूमिका किस तरह बनी, इस सवाल पर वे कहते हैं – ‘ हमारे परिवार में तीन पीढ़ियों से लोग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे है। मेरे पिता के यहां क्रन्तिकारी आते थे और ठहरते थे। मोठ तहसील में फतेहपुर के निकट बेतवा के किनारे जंगल में क्रन्तिकारी जुटते थे और हथियार चलाना सीखते थे। इसके बाद पिताजी चंद्रशेखर आज़ाद से जुड़ गए। ओरछा में साधु वेश में आज़ाद रहते थे। वहां क्रन्तिकारी जुटते थे। मैं छोटा था। क्रन्तिकारी मुझे बहुत प्यार करते थे। वे मुझे पिस्तौल पकड़ा देते थे। कहते थे लगाओ निशाना। मेरी उम्र आठ-नौ साल की होगी। हम पिस्तौल पकड़ते थे और वे दबा देते थे। हम उछल पड़ते थे। ‘
पिता के साथ दो महीने रहे कैद

आखिरकार अंग्रेजों के खिलाफ उनके मन में गुस्सा किस तरह पैदा हुआ, इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि मेरे पिता कांग्रेस से जुड़े थे और क्रांतिकारियों की भी मदद करते थे। मीटिंगों में भी हिस्सा लेते थे। एक बार पकडे गए। मुझे और पिताजी को थाने ले गए। थानेदार पिताजी को गाली बकने लगा। मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैंने थानेदार को थप्पड़ मार दिया। तब मेरी उम्र 11-12 साल रही होगी। इसके बाद पुलिस ने मुझे बहुत पीटा और पिताजी को बंद कर दिया। पिताजी के साथ मैं भी दो महीने बंद रहा। इसके बाद जब मैं बाहर निकला तो सक्रिय रूप से मीटिंगों में हिस्सा लेने लगा। क्रांतिकारियों की मीटिंग के लिए मैं चादर लेकर घर-घर खाना इकठ्ठा करता था और क्रांतिकारियों को उपलब्ध कराता था। बावई गांव में रहता था जो समथर रियासत का हिस्सा था।क्रांतिकारियों का सहयोग करने के लिए मेरे पिताजी को नौ महीने के लिए रियासत से भी निष्कासित कर दिया गया। उस समय हमारा परिवार अलग-अलग जगहों पर रहा।
जांघ में लगी गोली

सत्यदेव तिवारी आगे बताते हैं – ‘ पाण्डेचरी पर पुर्तगाल का कब्जा था। उस समय राम मनोहर लोहिया और मधु लिमये ने वहां आज़ादी का आंदोलन शुरू किया। हम वहां भी गए। गोलियां चली। जांघ में गोली लगी। पिटाई से पीठ की हड्डी में फ्रैक्चर हुआ।लम्बे समय तक इलाज चला। इसके बाद विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन से जुड़े।’
फिर से चाहते हैं क्रांति

वे कहते हैं – ‘ क्रांतिकारियों ने यह सोचा नहीं था कि आज़ादी देखेंगे लेकिन यह यकीन था कि देश आज़ाद होगा। भारत में 40 करोड़ की आबादी में देश की आज़ादी में 50 हज़ार लोगों का बलिदान था। हर एक का योगदान नहीं रहा। लम्बी गुलामी के बाद सोचने की शक्ति खत्म हो गई थी। पूंजीपति, जमींदार और जुल्म करने वाले लोग जनसंघ में, कांग्रेस में, कम्युनिस्ट पार्टियों में शामिल हो गए। शिक्षा व्यवस्था नकल आधारित हो गई। डिग्रियां बिकने लगीं। देश की बड़ी आबादी कमजोर होती गई। गुलामी में जो संस्कार हमने जीवित रखे थे, आज़ादी के बाद वे खत्म हो गए। मंदिर , मस्जिद, गिरिजाघर अय्याशी और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए। धर्म मनोरंजन का साधन बन गए। शिक्षा व्यापार का साधन बन गया। आजीविका के साधन और संपत्ति पूंजीपतियों के हाथ में चली गई। जनता के हाथ में तो कुछ रहा ही नहीं। अब एक बार फिर से क्रांति की जरूरत है। आज विकास और शिक्षा कुछ लोगों तक सीमित हो गयी है। शिक्षा और स्वास्थ्य प्रत्येक नागरिक को पूरी तरह मिलनी चाहिए। कोई सरकार यह दे नहीं पा रही। इससे देश का विकास रुका हुआ है। विधानसभा और लोकसभा में जूते उछाले जाते हैं। सारे राजनीतिक दलों में भ्रष्ट और माफिया लोग घुस गए हैं। कोई विभाग ऐसा नहीं हैं जिसमे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद न हो।’
 

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