यह मन्दिर 5 वर्ष पूर्व ही बना है। यहां यात्रियों के खाना बनाने, जल की व्यवस्था के साथ उनके रहने के निवास भी है। प्रतिवर्ष चैत्र और शारदीय नवरात्रा में इस मन्दिर पर देवी का अनुष्ठान, भजन, रात्रि जागरण होते हैं। आस-पास के अनेक ग्रामीण यहां दर्शन करने आते हैं। ग्रामीण छोटे बालकों के जात जडूल्ये उतरवाने, नए दुल्हा दुल्हन यहां विवाहोपरान्त ढोक देने भी आते हैं। अनेक भक्त मनोकामना पूर्ण होने पर यहां गोठ भी करते हैं।
मन्दिर के पुजारी सूरतराम भील ने बताया कि करीब 80 वर्ष पूर्व यहां एक बावड़ी थी। उसके पास ही एक कच्ची सड़क थी। सड़क पर निकलने वाले वाहनों को एक पत्थर से टकरा कर निकलना होता था। उस समय क्षेत्र के एक सेवाभावी भक्त हरिसिंह झाला ने जब इस रोड के पत्थर को निकलवाया तो उस पत्थर की शिला पर एक देवी मूर्ति का शीश निकला। इस शीश को उरमाल के ग्रामवासियों ने बावड़ी के समीप एक चबूतरे पर स्थापित कर पूजा करना आरम्भ किया। धीरे-धीरे लोगों की आस्था बड़ी और यहां चैत्र नवरात्रि पर मेला भरना आरम्भ हुआ।
बुजुर्गों ने बताया कि देवी की मूर्ति एक जलबावड़ी के पास से निकली थी। यहां सैकड़ों बोर के पेड़ थे। अतः इस देवी को ‘बोरबावड़ी’ माता जी नाम दिया गया। बाद में लोगों की आस्था तथा मनोकामना पूर्ण होने पर एकत्रित धन से देवी मूर्ति पर छत्री बनाई गई और फिर यहां 5 वर्ष पूर्व एक विशाल मन्दिर बनवाया गया।
प्राचीन मंदिर के अवशेष भी हैं यहां
- इतिहासकार ललित शर्मा के अनुसार मन्दिर में स्थापित यह देवी मूर्ति खण्ड 13वीं सदी के लगभग का है। यहां पूर्व में कोई प्राचीन देवी मन्दिर रहा है जिसके कला अवशेष 13वीं सदी के पैरों में जूते पहने व दोनों हाथ में कमल धारण किए सूर्य की मूर्ति, गणेश की मूर्ति, मन्दिर का मुख्यद्वार जिसके मध्य में गणेश व आस-पास दशावतार खण्ड सहित एक बैठी हुई देवी की मूर्तियां है जो मन्दिर की बावड़ी में स्पष्ट तौर पर लगी है। मुख्य देवी मूर्ति के शीश पर कीरीट मुकुट है तथा उसका मुख सौम्यता लिए है। इस मूर्ति में बाईं ओर एक देवी मूर्ति तथा दाईं ओर एक देव मूर्ति है जिसे हनुमान की मूर्ति माना जाता है।