जैसलमेर

कच्छ भुज से आई आशापुरा माता, लौद्रवा की बजाय परमाणु नगरी में किया निवास

– बड़े मंदिरों में शुमार है आशापुरा माता का मंदिर, प्रतिदिन पहुंचते है सैंकड़ों श्रद्धालु

जैसलमेरFeb 11, 2024 / 08:03 pm

Deepak Vyas

कच्छ भुज से आई आशापुरा माता, लौद्रवा की बजाय परमाणु नगरी में किया निवास

पोकरण कस्बे में स्थित विभिन्न ऐतिहासिक देवी मंदिरों का बहुत बड़ा धार्मिक महत्व है। इन मंदिरों में यूं तो वर्षभर दर्शनार्थियों का आवागमन रहता है, लेकिन नवरात्रा के दौरान इन मंदिरों की रोनक ओर भी बढ़ जाती है। यहां दिन-रात श्रद्धालुओं की रेलमपेल के चलते ये मंदिर आस्था के केन्द्र बन जाते है। इन्हीं मंदिरों में कस्बे का सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय मंदिर आशापुरा माता का ऐतिहासिक मंदिर है। यहां पोकरण ही नहीं बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, फलोदी, बाड़मेर आदि क्षेत्रों से प्रतिदिन सैंकड़ों की संख्या में श्रद्धालु यहां आकर दर्शन करते है। पुष्करणा ब्राह्मण समाज में बिस्सा जाति की कुलदेवी आशापुरा माता का मंदिर कस्बे से पश्चिम की ओर 3 किलोमीटर दूर एक समतल पठारी भूमि पर स्थित है।

यह है मान्यता

इस मंदिर की स्थापना विक्रम संवत् 1315 में माघ शुक्ला तृतीया के दिन देवी के अनन्य भक्त रुद्रनगर लोद्रवा निवासी लूणभानू बिस्सा ने की थी। ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार बिस्सा अपनी कुलदेवी आशापुरा माता के अनन्य भक्त थे, जो प्रतिवर्ष गुजरात प्रांत के कच्छ क्षेत्र में स्थित आशापुरा मंदिर दर्शनों के लिए जाते थे। जब वे वृद्ध हुए, तब उन्होंने मां आशापुरा से पुन: आने में असमर्थता जताते हुए क्षमा मांगी, तभी देवी ने अपने भक्त की पुकार सुनकर कहा वे उसकी भक्ति से प्रसन्न है और जो इच्छा हो, वरदान मांगो। उन्होंने कहा कि मैं अपने शेष जीवन में भी आपके चरणों की सेवा करना चाहता हूं, ताकि मैं अपना अंतिम समय भी आपके चरणों में समर्पित कर सकूं। मां आशापुरा ने उन्हें वरदान दिया कि वह उसके साथ रुद्रनगर चलेगी, लेकिन तुम रास्ते में किसी भी दशा में पीछे मुड़कर मत देखना। जिस स्थान पर यह दशा भंग होगी, वे वहीं रुक जाएगी। इसी शर्त के अनुसार कच्छ से रुद्रनगर जाते समय पोकरण से 3 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में भक्त बिस्सा को ठहर माता ऐसा शब्द सुनाई दिया, तब उन्होंने अनायास ही पीछे मुड़कर देखा तो मां आशापुरा देवी ने कहा कि तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इसलिए अब मैं यहां से आगे नहीं बढ़ सकती और इतना कहकर मां आशापुरा भूमि में प्रविष्ट हो गई। उस जगह पर उनका एक दुपट्टा बाहर पड़ा था। उसी स्थान पर उन्होंने मां आशापुरा देवी के मंदिर का निर्माण करवाया एवं समय के साथ-साथ उसका विकास आगे बढ़ता रहा।

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