scriptयुवा लेखक की रचना ‘मदारीपुर जंक्शन’ ने साहित्यकारों के बीच बनाई अलग पहचान- विशेष इंटरव्यू | Writer Balendu Dwivedi Biography in Hindi | Patrika News
जयपुर

युवा लेखक की रचना ‘मदारीपुर जंक्शन’ ने साहित्यकारों के बीच बनाई अलग पहचान- विशेष इंटरव्यू

मदारीपुर जंक्शन में गांव की सौंधी मिट्टी की महक के साथ ही जीवन की कटु सच्चाई भी सामने आती है। साहित्यकार के रूप में स्थापित बालेंदु…

जयपुरFeb 23, 2018 / 08:24 pm

पुनीत कुमार

Balendu Dwivedi
– पुनित कुमार।

गोरखपुर के एक छोटे से गांव ब्रह्मपुर में पैदा हुए लेखक बालेंदु द्विवेदी ने एक सीधी सरल रचना मदारीपुर जंक्शन के जरिए साहित्यकारों के बीच अपनी पहचान बनाई है। उनके लिखे उपन्यास मदारीपुर जंक्शन में गांव की सौंधी मिट्टी की महक के साथ ही जीवन की कटु सच्चाई भी सामने आती है। साहित्यकार के रूप में स्थापित बालेन्दु को इस क्षेत्र में आने की प्रेरणा लेखक श्रीलाल शुक्ल से मिली। इसके अलावा वे साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद से भी खासे प्रभावित रहे है। प्रेमचंद की तरह बालेंदु ने भी आम जनजीवन और इसमें आने वाले लोगों को किरदार के रूप में अपने उपन्यास में पेश किया है।
मदारीपुर जंक्शन के लेखक युवा साहित्यकार बालेंदु द्विवेदी से विशेष साक्षात्कार-

सवाल- मदारीपुर जंक्शन के बारे में विशेष…

जवाब- मदारीपुर गांव उत्तर प्रदेश के नक्शे में ढूंढें तो शायद ही कहीं आपको नजर आ जाए, लेकिन निश्चित रूप से यह गोरखपुर जिले के ब्रह्मपुर गांव के आस-पास के हजारों-लाखों गांवों से ली गई विश्वसनीय छवियों से बना एक बड़ा गांव है। जो अब भूगोल से गायब होकर उपपन्यास में समा गया है। बात उपन्यास की करें तो मदारीपुर के लोग अपने गांव को पूरी दुनिया मानते हैं। गांव में ऊंची और निचली जातियों की एक पट्टी है। जहां संभ्रांत लोग लबादे ओढ़कर झूठ, फरेब, लिप्सा और मक्कारी के वशीभूत होकर आपस में लड़ते रहे, लड़ाते रहे और झूठी शान के लिए नैतिक पतन के किसी भी बिंदु तक गिरने के लिए तैयार थे। फिर धीरे-धीर निचली कही जाने वाली बिरादरियों के लोग अपने अधिकारों के लिए जागरूक होते गए और ‘पट्टी की चालपट्टी’ भी समझने लगे थे। इस उपन्यास में करुणा की आधारशिला पर व्यंग्य से ओतप्रोत और सहज हास्य से लबालब पठनीय कलेवर है।
सवाल- व्यंग्य साहित्य की ओर रुझान कैसे पैदा हुआ, वो पहली रचना जिसने आपको रेखांकित किया और आप इस राह चल पडे?

जवाब- रुझान पैदा नहीं किया जा सकता, इसे बढ़ाया जा सकता है। पिताजी कलाकार थे। तो कला रगों मे थी। बस कूंची का स्थान क़लम ने ले लिया। हां.. ! मेरी इस प्रतिभा को तराशा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरे गुरुवर डॉ राजेन्द्र कुमार ने। बात तब की है जब साल 2005 में छिटपुट व्यंग्य कविताएं लिखना शुरू किया था। वर्ष 2010 में नौकरी छोड़ने का ख़याल आया और मैं दोस्तों के साथ मुंबई पहुंच गया। एक साल में लगभग एक दर्जन स्क्रिप्ट्स लिख डालीं, लेकिन यह मार्ग भी ‘ले दही-ले दही’ जैसा लगा। तब ख्याल आया कि कुछ स्थाई काम किया जाए। साल 2011 में सबसे पहले उपन्यास का आत्मकथ्य लिखकर अपने भीतर के साहित्यकार को चेक करना चाहा। गाड़ी आगे चल पड़ी और फिर मैंने मदारीपुर-जंक्शन को लिखने की ग़ुस्ताख़ी कर डाली।
सवाल- तसलीमा नसरीन से कैसे संपर्क हुआ, और उन्हीं से अपनी किताब का विमोचन कोई विशेष कारण..?

जवाब- तस्लीमा जी की विद्रोहात्कता जगज़ाहिर है। मैं भी कुछ मायनों में विद्रोही हूं। सामाजिक विद्रूपताओं और संकीर्णताओं को किंचित भी स्वीकार नहीं कर सकता-चाहें वे निजी जीवन में हों या लेखकीय जीवन में। शायद इसीलिए यह किताब मेरे प्रकाशन के सीईओ श्री अरूण माहेश्वरी जी के माध्यम से तस्लीमा जी तक पहुंची और उन्होंने इसके विमोचन का प्रस्ताव स्वीकार किया।
सवाल- आपकी कोई रचना जिस पर फिल्म बन सकती हो?

जवाब- ‘मदारीपुर जंक्शन’ मेरी पहली रचना है और पाठकों ने इसे सिर आंखों पर बिठाया है। एक महीने के भीतर इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित होना और इलाहाबाद और लखनऊ में इसका मंचन होना इसकी सफलता का प्रमाण है। स्वाभाविक है कि रंगमंच के माध्यम से यह फ़िल्मकारों का ध्यान अपनी ओर खींचे। फ़िलहाल यह भविष्य के गर्त में है और इस पर कुछ भी कहना जल्दीबाज़ी होगी।
सवाल- साहित्‍यिक दृष्‍टिकोण की बात करें तो पिछली पीढ़ी और अब में क्या अंतर महसूस करते हैं?

जवाब- पिछली पीढ़ी का साहित्य अपेक्षाकृत अधिक व्यापक फलक पर आधारित हुआ करता था और उसमें यथार्थपरता का पुट था।अनुभव में गहराई थी सो अलग..!आज की पीढ़ी के लेखकों में इन चीज़ों का अभाव दीखता है।ज़्यादातर कम समय और छितरे हुए और अधकचरे अनुभव के साथ मैदान में कूद पड़े हैं और पाठक के सामने पुस्तकों का ऐसा अंबार खड़ा हो गया है कि उसे बेहतर साहित्य तलाशना मुश्किल हो गया है।बिक्री को बेहतरी का पर्याय मान लिया गया है।गूगलजनित लेखकों ने साहित्य का बेड़ा गर्क कर रखा है।
सवाल- साहित्य में जो इस दौरान पाठकों को खालीपन महसूस होता है, उस आपकी क्या राय है?

जवाब- पाठकों का ख़ालीपन दरअसल गुणवत्तापरक साहित्य के अभाव की उपज है।

सवाल- साहित्य आपकी नजर में क्या मायने रखता है?
जवाब- साहित्य मेरे लिए प्राणवायु की तरह है। बिना इसके जीवन की कल्पना नहीं कर सकता।

सवाल- अभी आप क्या नया लिख रहे या किसी रचना पर काम कर रहे हैं?

जवाब- इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर केंद्रित ‘वाया फुरसतगंज’ पर काम कर रहा हूं। वर्ष 2019 में यह किताब पाठकों के सामने होगी।
सवाल- युवाओं का रुझान इस ओर कैसे बांधा जा सकता है?

जवाब- यह सवाल कई मायनों में महत्वपूर्ण है। लोगों को भ्रम है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने साहित्य के स्थानापन्न का स्थान ग्रहण कर लिया है। इससे बेतुकी बात हो ही नहीं सकती। कोई भी एक विधा, दूसरी विधा को रिप्लेस नहीं कर सकती। गिरावट साहित्य में है और दोष दूसरे पर मढ़ा जा रहा है। बेहतर साहित्य का रसास्वादन हर युग में होता आया है, चुनौतियां चाहें जिस रूप में हों-चाहें जैसी हों। रुझान तभी पैदा होगा जब बेहतर साहित्य लिखा जाय..!
सवाल- अपनी प्रशासनिक व्यस्तताओं के बीच लेखन से कैसे तालमेल बिठाते हैं?

जवाब- बहुत कठिन काम है। दिल में कहानी चलती रहती है और दिमाग़ में फ़ाइलें और मीटिग्स। कभी दिल, दिमाग़ को समझाता है तो कभी दिमाग़ दिल को मनाता है। इस आपसी लुकाछिपी के बीच दिनभर सामग्री संचयन होता रहता है और फिर देर रात में या सुबह-सुबह लेखक की क़लम ग़ुस्ताख़ी करने के लिए मचलने लगती है।

Hindi News/ Jaipur / युवा लेखक की रचना ‘मदारीपुर जंक्शन’ ने साहित्यकारों के बीच बनाई अलग पहचान- विशेष इंटरव्यू

ट्रेंडिंग वीडियो