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मंदिर के महंत अशोक रघुनाथदास महाराज बताते हैं, भगवान श्री राम के श्री विग्रह से धनुष बान हटाकर उनके हाथों में बांसुरी धारण कराई जाती है, साथ ही मुकुट भी मोर पंख सहित धारण कराया जाता है। जन्मोत्स्व के बाद महाआरती के दौरान पुष्प वर्षा होती रहेगी। पंजीरी, पेडा ,पंचामत आदि का भोग लगाकर आरती की जाएगी। इस अवसर पर भक्तों के लाए गए खिलोंने आदी की उछाल की जाती है। कार्यक्रम में उपस्थित सभी भक्तों को प्रसाद दिया जाता है। इस परंपरा के पीछे की कारण यहीं है कोई भी धार्मक ग्रंथ इनमें भेद नहीं बताते है। इसलिए कृष्ण जन्माष्टमी पर राम की प्रतिमा का कृष्ण का रूप दे दिया जाता है। जन्माष्टमी पर भगवान के श्री विग्रह को पुन: गर्भ गृह में स्थापति कर बाल रुप में भगवान श्री कृष्ण मनमोहक झांकी सजाई जाएगी। भगवान श्री कृष्ण खास तोर पर वृदांवन से पोशाक आती हैं।
1805 ईस्वी में मंदिर-लक्ष्मणगढ़ किले की नींव एक साथ रखी गई थी
1805 ईस्वी में मंदिर व लक्ष्मणगढ़ के किले की एक साथ नींव रखी गई थी। इसका निर्माण नगर के संस्थापक नरेश राव राजा लक्ष्मण सिंह के द्वारा करवाया गया था। मंदिर के निर्माण के बाद 1814 ईस्वी में मंदिर में मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई गई। राजाओं के जमाने में राव राजा लक्ष्मण सिंह से लेकर अंतिम राव राजा कल्याण सिंह तक जब भी राजा रामगढ आदी की यात्रा करते तो बीच में लक्ष्मणगढ आने के कारण मंदिर में श्री रघुनाथ के दर्शन कर महंत महाराज से आशीर्वाद स्वरुप रेशमी दुप्टटा, प्रसाद आदी लेकर अपनी गंतव्य की ओर बढते थे। यह भी पढ़ें