राजस्थान में अतिक्रमण अमरबेल की तरह फैल रहा है। अतिक्रमणकारियों ने छोटी गलियों, मुख्य सड़कों से लेकर नदी-नाले, बांधों के बहाव क्षेत्र तक नहीं छोड़े। यहां तक की वन भूमि पर कब्जा कर कंक्रीट के जंगल बना डाले। सड़क की चौड़ाई बढ़ाने तक में अतिक्रमणकारी रोड़ा बने हुए हैं।
अतिक्रमण के मुद्दे पर हाईकोर्ट स्थानीय प्रशासन से लेकर सरकार तक को कटघरे में खड़ा कर चुका है। समय-समय पर अफसरों को लताड़ लगाई, यहां तक की कोर्ट में तलब भी किया। इसके बावजूद सड़क के बीच जमे, जल स्रोत और वन भूमि को लीलने वाले अतिक्रमणकारियों को हटाने की कार्रवाई समान भाव से नहीं हो रही। जयपुर समेत राज्य के करीब-करीब सभी शहरों में ऐसे परेशान करने वाले हालात हैं।
राजस्थान हाईकोर्ट 20 साल से अतिक्रमण हटाने के संबंध में नियमित आदेश दे रहा है। कोर्ट से न्याय की उम्मीद में बीते 10 साल में अतिक्रमण हटवाने की गुहार लेकर अकेले जयपुर पीठ में एक हजार से अधिक याचिकाएं दायर हुईं। इस साल भी जनवरी से अब तक 129 याचिकाएं दायर हो चुकी हैं। उनमें से कुछ पर आदेश भी दे दिए गए। इसके बावजूद अफसर कार्रवाई नहीं कर रहे। जोधपुर में भी आए-दिन याचिकाएं दायर हो रही हैं। अब सवाल है, आखिर ऐसा क्यों? दरअसल जिन मामलों में सरकार और अफसरों की मर्जी है, एक्शन भी वहीं तक सीमित है।
अफसर सिर्फ उन आदेशों की पालना करने में रुचि दिखाते हैं, जिसमें उनके उद्देश्य की पूर्ति हो। ऐसे में अदालत के आदेश की सार्थकता क्या बची। सार्थकता का अभिप्राय है, सार्थक होने का भाव या उद्देश्यपूर्ति। अब सवाल उठता है कि क्या अदालत के आदेश की उद्देश्यपूर्ति हो रही है? जवाब है, नहीं… तो ऐसा क्यों? क्योंकि आदेश देने के बाद अदालत के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो उसकी पालना सुनिश्चित करे। दरअसल आदेश के बाद उसके ताले की चाबी तो सरकार और अफसर की जेब में है। वह चाहेंगे तो ताला खुलेगा, अन्यथा अफसर तो जेब में नोटों के बीच चाबी खो देगा।
आदेश की पालना न होना क्या अदालत का अपमान नहीं है। आखिर अवमानना की परिभाषा क्या है? बहुत सरल है, लोक हित में सुनाए न्याय संगत आदेश की यदि पालना नहीं होती तो यह अवमानना है। हर न्याय संगत आदेश की अक्षरश: पालना हो, आखिर यह जिम्मेदारी किसकी है? जब तंत्र भ्रष्ट हो जाए तो यह जिम्मेदारी भी न्यायपालिका को अपने हाथों में लेनी पड़ेगी।
आमजन के लिए संभव नहीं कि वह आदेश की पालना नहीं होने पर अवमानना की शिकायत लेकर अदालत पहुंचे। हर किसी को लगता है कि मेरे करने से क्या होगा? उलटे दो-चार दुश्मन और पैदा हो जाएंगे। साथ ही वकील का खर्चा और भागा-दौड़ी सो अलग। ऐसे में आमजन तो पीड़ा भोगने के बाद भी अवमानना की शिकायतें लेकर अदालत नहीं पहुंच पाता। अत: अदालत के हर आदेश की पालना के लिए अब न्यायपालिका को अपना विशेष तंत्र विकसित करना जरूरी है। इसके बाद ही सरकार, अफसर और अतिक्रमणकारियों में कानून का भय कायम हो सकेगा।