जयपुर

विकास की मृत्यु यात्रा

एक समय था जब अन्न ब्रह्म था, आज भ्रम बनकर रह गया है। यही विज्ञान का विकास और चमत्कार है। विकास का लक्ष्य और परिणाम दोनों विपरीत दिशा में यात्रा करते हैं। जैसे-जैसे अन्न की मात्रा बढ़ाना विज्ञान का लक्ष्य रहा है, कुपोषण- रक्ताल्पता का प्रभाव भी उसी अनुपात में हुआ है।

जयपुरJan 30, 2024 / 11:21 am

Gulab Kothari

गुलाब कोठारी
एक समय था जब अन्न ब्रह्म था, आज भ्रम बनकर रह गया है। यही विज्ञान का विकास और चमत्कार है। विकास का लक्ष्य और परिणाम दोनों विपरीत दिशा में यात्रा करते हैं। जैसे-जैसे अन्न की मात्रा बढ़ाना विज्ञान का लक्ष्य रहा है, कुपोषण- रक्ताल्पता का प्रभाव भी उसी अनुपात में हुआ है। आज तो उर्वरक- कीटनाशक की जुगलबन्दी ने मानवता पर मानो वज्रपात कर डाला। जीवन का स्थान मृत्यु ने ले लिया है। कैंसर की मार स्वयं किसान नहीं झेल पा रहा। वह अपने परिवार के लिए अन्न/फल अन्यत्र से खरीदता है। हम नियोजित ढंग से प्रलय की ओर बढ़ रहे हैं। विज्ञान भी शास्त्रों की वाणी को पुष्ट करने में सहयोग कर रहा है। ताकि प्रलय समय पर आ सके। रोग और मृत्यु दोनों के स्वरूपों का विकास हुआ है। हमारे पास बचने के लिए कोई विकल्प ही नहीं रह गया है। सब कुछ बदला, हमारी कहावत नहीं बदली- ‘जैसा खावे अन्न, वैसा होबे मन।’ जो कीड़े उन्नत बीजों की फसलों में लगे, वे ही हमारी संस्कृति में भी लग गए। कीटनाशकों का प्रभाव जीवनशैली पर प्रतिबिम्बित होने लगा है। विकसित देश बहुत आगे निकल गए। हमारे नीति निर्धारक तेजी से विकास को उधर ही ले जा रहे हैं। उनको हमारी संस्कृति- प्रकृति-सनातन ज्ञान की शिक्षा ही नहीं है। अंग्रेजी पढ़ते हैं, उनकी ही नकल कर सकते हैं।

हमारे यहां अन्न के साथ कई शब्द- विषय-लक्ष्य जुड़े हैं। अग्नि देवता को प्रथम भोग, प्रसाद, धन्यवाद देवों को यजमान को, प्रार्थना, दान आतिथ्य, अन्नकूट आदि शब्द वर्षभर सुनाई देते रहे हैं। किसी अतिथि को खिलाकर खाने की परम्परा के स्थान पर दूसरों से लूटकर खाने तक विकास पहुंच गया। गरीबों को भोजन बांटना नियमित था। आज गरीबों की योजनाओं का अन्न उन तक पहुंचता ही नहीं। ये सारे बदलाव अन्न के स्रोत और नीयत के बदलाव से ही आए हैं। ऐसे घरों में रोगों की प्रतिष्ठा, अकाल मृत्यु और उत्तराधिकारी का अभाव प्राकृतिक स्वरूप का ही दर्शन है। कहावत कहां गलत है।

अन्न का स्वरूप बदल गया। हमारे अन्न को औषधि कहते हैं। जिसका पोचा, फल लगने पर नाष्ट हो जाए वह औषध है। हमें चिकित्सा के लिए अन्यत्र जाने की जरूरत ही नहीं थी। रसोई को ‘रसाण’ -रसायनशाला- कहते थे। आज उसी औपच से बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं। इसी के विकास का ध्यान सरकारें रख रही है।

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कृषि वैज्ञानिकों के एक विश्लेषण के अनुसार गेहूं-चावल की उच्च उत्पादकता की जो प्रजातियां विकसित की गई उनमें जरूरी पोषक तत्वों की मात्रा आची रह गई। यह विश्लेषण रिपोर्ट इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च (आइसीएआर), विधानचन्द्र कृषि विश्वविद्यालय पश्चिम बंगाल तथा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन, तेलंगाना के 12 वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से तैयार की है।


इंसान खो जाएगा
देश में खाद्यान उत्पादन के क्षेत्र में उत्तरप्रदेश सर्वोपरि है। यहां 56.11 मिलियन मेट्रिक टन खाद्यात्र पैदा होता है। राजस्थान का स्थान चौथा है जहां प्रतिवर्ष 21.05 मिलियन मैट्रिक टन खाद्यान पैदा होता है। देश की कुल पैदावार का 6.7 प्रतिशत अंश राजस्थान का है। विश्लेषण के अनुसार राजस्थान के अनाज में कैलोरी ऊर्जा 45 प्रतिशत तक घटी है। नहरी सिंचाई के बाद बीज और खाद के बदलाव से मिट्टी का पोषण कम हुआ है। मोटे अनाज को पैदावार भी कम हुई है। प्रदेश में मोटापा और कुपोषण बढ़ा है। प्रोटीन प्रधान अत्र की गुणवत्ता कम हुई है।

मध्यप्रदेश की भूमि आयरन मैगनीज से भरपूर है। उपजाऊ मिट्टी के कारण प्रदेश को सात बार ‘कृषि कर्मण’ अवार्ड प्राप्त हुआ है। आज उर्वरक और कीटनाशकों की प्रचुरता ने पोषक तत्त्वों का संतुलन बिगाड़ दिया है। खेतों में पराली-आग लगाने की व्यवस्था ने संतुलन को और बिगाड़ा ही है। कुछ स्थानों पर नाइट्रोजन फास्फोरस-पोटेशियम का स्तर भी गिरा है। किसानों को प्रशिक्षित भी कर रहे है, किन्तु बिना मिट्टी की जांच किए उर्वरकों-कीटनाशकों का प्रयोग हानिकारक ही सिद्ध हुआ है। अभी तो यह सुरूआत है। भोपाल के इंडियन इंस्टीट्‌यूट ऑफ सोइल साइस (आइ‌आइएसएस) ने इन तत्वों से युक्त खाद के उपयोग की सलाह दी है। प्रदेश का बड़ा भू-भाग उपजाऊ काली मिट्टी वाला है। पोषक तत्वों से भरपूर है। नर्मदापुरम्-हरदा सिंचाई परियोजना के सिंचाई क्षेत्रों में 3- 4 फसलें होने लगी है। खाद-दवा का ओवरडोज-मानो सोने का अंडा देने वाली मुगी का पेट चीर रहे हों। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सोयाबीन रिसर्च, इन्दौर के अनुसार मध्यप्रदेश का काला गेहूं बहुत पोषक तत्वों से भरपूर है। उसकी नई किस्में भी तैयार है।

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छत्तीसगढ़ में महिलाओं और बच्चों के कुपोषण से बचाने के लिए उचित मूल्य की दुकानों के जरिए फोर्टिफाइड चावल का वितरण किया जा रहा है। लेकिन अनाज की गुणवत्ता बढ़ाने की दृष्टि से कोई कार्य नहीं हुआ है। चावल की उपज का भी बड़ा क्षेत्र है। मिलों में पॉलिशिंग में 75-90 प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं। विटामिन निकल जाते हैं। चोकर निकल जाता है। इसी कमी को फोर्टीफाइड चावल से पूरा करने का प्रयास करते हैं। इसमें आयरन, फॉलिक एसिड, विटामिन बी-12 आदि मिलाए जाते हैं।

देश के प्रमुख चावल उत्पादक राज्यों में शुमार पश्चिम बंगाल में भी चावल में टॉक्सिक पदार्थ जैसे आर्सेनिक की मात्रा बढ़ी है। अधिक पैदावार बढ़ाने के लिए तरह-तरह के रसायन उर्वरक इस्तेमाल करने से भी चावल की पौष्टिकता पर असर पड़ा है। कर्नाटक में भी खाद्यान्त्र उत्पादन पिछले कुछ दशकों में बढ़ा है, मगर पौष्टिकता घटी है। विशेषज्ञों का कहना है कि पोषण की कमी का एक बड़ा कारण यह है कि अधिकांश किसान रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध उपयोग कर रहे हैं। जिसके कारण मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इन सबके बावजूद रिपोर्ट बताती है कि चावल में जिंक की मात्रा 33 प्रतिशत तथा आयरन की 27 प्रतिशत कम हुई है। वहीं गेहूं में क्रमशः 30 प्रतिशत तथा 19 प्रतिशत घटी है। सबसे बड़ा दुष्प्रभाव चावल में 1493 प्रतिशत आर्सेनिक के बढ़ने का हुआ है। विषैले तत्व बैरियम, एल्यूमीनियम, स्ट्रोनटियम, आर्सेनिक आदि बढ़े हैं।

 

कुल मिलाकर सभी राज्यों का लक्ष्य पैदावार बढ़ाने पर है। भले ही भण्डारण के अभाव में देश में लाखों टन अनाज सड़ता हो। पोषकता से समझौता करके मौत को न्योता देकर पुरस्कार पाना गर्व की बात है! अभी तो लगभग 45 प्रतिशत पोषक तत्व घटे हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2040 तक तो ये तत्व न्यूनतम रह जाएंगे। यहां तक कि चावल में आयरन 8 फीसदी और गेहूं में महज सात फीसदी ही रह जाएगा। वहीं चावल में कैल्शियम 120 मिलीग्राम प्रतिकिलो तथा गेहूं में 320 मिलीग्राम प्रतिकिलो तक ही रह जाएगा। तब खाने वाले में क्या रह जाएगा! आज तो आत्मा सुप्त है, शरीर सक्रिय है। कल शरीर भी रोगयुक्त हो जाएगा-खोखला रह जाएगा। विकास तो रहेगा, इंसान खो जाएगा।

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