वे तब लेफ्टिनेन्ट कर्नल के पद पर थे। वर्ष 1971 में भारत ने पूर्वी पाकिस्तान (आज के बांग्लादेश) को स्वतंत्र होने में अभूतपूर्व सैन्य सहायता प्रदान कर विश्व को चौंका दिया था। पश्चिम सीमा पर पाकिस्तान ने ‘पैटन टैंकों’ से पंजाब एवं राजस्थान में कई इलाकों पर आक्रमण किए जिनका माकूल जवाब देकर उन्हें ध्वस्त किया। भारतीय सेना दुश्मन के इलाकों में घुसती गई।
बहुत कम लोगों को यह पता चला कि पांच महीनों से रेगिस्तानी क्षेत्रों में हवाई जहाजों से छाताधारी लड़ाकू योद्धाओं (पैरा ट्रूपर सैनिक) को कुदाया जा रहा था और ऐसे प्रशिक्षण दिए जा रहे थे कि वे अंधेरे में पाकिस्तान के इलाकों पर कब्जा कर लें। भवानी सिंह तब भारतीय सेना के दसवीं ‘पैरा रेजिमेंट’ के शीर्ष अधिकारी थे और इस प्रशिक्षण का नेतृत्व कर रहे थे।
सेना प्रमुख एस.एच.एफ.जे. मानकशा के इशारे पर इन्होंने छाताधारी सैनिकों की अगुवाई कर उस ‘डेजर्ट ऑपरेशन’ की अगुवाई की और पाकिस्तान की सीमा में छाछरो नामक नगर पर आधी रात में ही कब्जा कर लिया। ‘एल्फा’ और ‘चारली’ नामक दो अलग-अलग टुकडिय़ों के जमीन पर कूदते ही सेना की ‘जोंगा’ जीपें खड़ी मिलती जिनमें गोला-बारूद एवं खाने का सामान रहता था। पांच दिन में इन सभी ने छाछरो के बाद वीरावाह, इस्लामकोट, नगरपारकर और अन्त में लुनियों नामक नगरों पर तिरंगा झण्डा फहरा दिया। यह इलाके बाड़मेर के दक्षिण-पश्चिम में थे और करीब 60 से 90 किमी की दूरी पर। इस कार्र्रवाई में पाक के 36 सैनिक मारे गए और 22 को युद्ध बन्दी बनाया गया।
वीरोचित सम्मान देने के लिए पूरा देश उन दिनों युद्ध से लौटने वाले सैनिकों के लिए पलकें बिछाए हुए था। जयपुर में ले. कर्नल भवानी सिंह को दोतरफा आदर मिला। एक तो वे यहां के नरेश थे। दूसरे एक ऐसे सैन्य अधिकारी जिन्होंने छाताधारी सैनिकों की रेजिमेंट का नेतृत्व कर पाकिस्तान के कई शहरों को फतह किया। खुली जीप में खड़े होकर यह सैन्य अधिकारी बाजारों में खड़े नागरिकों से शाबाशी प्राप्त करते हुए बार-बार झुकते थे। हाथ जोडकऱ लोगों को धन्यवाद दे रहे थे।
जौहरी बाजार से इनकी जीप को आगे बढऩे में सबसे अधिक समय लगा। इतनी लम्बी विजय यात्रा में जयपुर वासियों ने न तो तोरण द्वार बनवाए, न ही कोई बैनर या होर्डिंग लगवाए। ऐसा दिखावा तब जीवन का अंग नहीं था। लोगों को एक साथ जुडऩे का संकेत कैसे मिला कि वे समूह में उमड़ पड़े और अत्यन्त अनुशासित बने रहे। ‘राजस्थान पत्रिका’ में इस युद्ध के विजेता के लौटने की खबर एक दिन पहले प्रकाशित हुई थी। इतना काफी था जयपुर शहर के उमडऩे के लिए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सवाई भवानी सिंह ही एकमात्र नरेश थे जिन्होंने भारतीय सेना में सैकंड लेफ्टिनेंट के पद से सेवा आरंभ की और बटालियन के कमाण्डर पद से स्वत: सेवानिवृत्ति प्राप्त की। इस लड़ाई में शौर्य, पराक्रम एवं नेतृत्व की श्रेष्ठता के लिए इन्हें सरकार ने ‘महावीर चक्र’ से सुशोभित किया। 22 अक्टूबर 1931 को जन्मे इस पैराट्रू पर फौजी अफसर को ब्रिगेडियर का ओहदा भी सरकार ने प्रदान किया। इनका देहान्त 17 अप्रेल 2011 को हुआ। ऐसे सभी वीरों को पत्रिका का सादर अभिनन्दन, बार-बार।