परोपकार
डॉ. मंजरी शुक्ला पापा, कितनी देर से कह रहा हूं कि सड़क पर एक छोटा सा पिल्ला बहुत देर से कूं कूं कर रहा है।’
‘ओह! तो मैं क्या करूं?’ मैंने झाुंझालाते हुए कहा। ‘उसे सर्दी लग रही होगी।’ बेटे ने चिंतित स्वर में कहा।
‘अभी इतनी ठंड कहां है?’ कहते हुए मैंने कुर्सी पर पड़ा शॉल अपने ऊनी स्वेटर के ऊपर लपेट लिया और हीटर को पैरों के पास थोड़ा और सरका लिया।
डॉ. मंजरी शुक्ला पापा, कितनी देर से कह रहा हूं कि सड़क पर एक छोटा सा पिल्ला बहुत देर से कूं कूं कर रहा है।’
‘ओह! तो मैं क्या करूं?’ मैंने झाुंझालाते हुए कहा। ‘उसे सर्दी लग रही होगी।’ बेटे ने चिंतित स्वर में कहा।
‘अभी इतनी ठंड कहां है?’ कहते हुए मैंने कुर्सी पर पड़ा शॉल अपने ऊनी स्वेटर के ऊपर लपेट लिया और हीटर को पैरों के पास थोड़ा और सरका लिया।
बेटा बोला-‘पापा, बाहर बहुत ठंड है। शायद वह अपनी मां से बिछड़ गया है। हम उसको ब्रेड दे देते है और उसके ऊपर एक कपड़ा डाल आते हैं।’
‘मुझो परेशान मत करो। मैं परोपकार पर कहानी लिख रहा हूं। कहते हुए मैं वापस लिखने में जुट गया।
बेटा सामने ही कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि वह कुर्सी पर ही सो चुका था। मैंने उसे प्यार से गोदी में उठाया और बिस्तर पर जाकर लेटा दिया।
‘मुझो परेशान मत करो। मैं परोपकार पर कहानी लिख रहा हूं। कहते हुए मैं वापस लिखने में जुट गया।
बेटा सामने ही कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि वह कुर्सी पर ही सो चुका था। मैंने उसे प्यार से गोदी में उठाया और बिस्तर पर जाकर लेटा दिया।
थोड़ी देर बाद मोबाइल पर मैसेज आया कि संपादक ने कहानी स्वीकृत कर ली थी और कहानी पढ़कर उनकी भी आंखें भर आई थीं।
मेरा चेहरा ख़ुशी से खिल उठा और मैं भी नरम मुलायम कंबल में सिकुड़ कर सो गया। दूसरे दिन सुबह जब मैं अपना गर्म ओवरकोट पहनकर दूध लाने के लिए निकला तो गेट पर ही काले रंग का छोटा सा पिल्ला मरा हुआ पड़ा था और एक काले रंग का कुत्ता उसके चारों तरफ चक्कर लगाकर बार- बार उसके पास बैठ रहा था। पिल्ले के ऊपर मेरी कहानी के कुछ पन्ने भी पड़े थे, जो मैंने रात में खिड़की से बाहर फेंक दिए थे। मैं कांपते कदमों से उसके पास गया। उसके मुंह के पास ही एक कागज पड़ा था, जिस पर मेरी लिखावट में लिखा था, ‘परोपकार’।
मेरा चेहरा ख़ुशी से खिल उठा और मैं भी नरम मुलायम कंबल में सिकुड़ कर सो गया। दूसरे दिन सुबह जब मैं अपना गर्म ओवरकोट पहनकर दूध लाने के लिए निकला तो गेट पर ही काले रंग का छोटा सा पिल्ला मरा हुआ पड़ा था और एक काले रंग का कुत्ता उसके चारों तरफ चक्कर लगाकर बार- बार उसके पास बैठ रहा था। पिल्ले के ऊपर मेरी कहानी के कुछ पन्ने भी पड़े थे, जो मैंने रात में खिड़की से बाहर फेंक दिए थे। मैं कांपते कदमों से उसके पास गया। उसके मुंह के पास ही एक कागज पड़ा था, जिस पर मेरी लिखावट में लिखा था, ‘परोपकार’।
——————————- खुर्राट रश्मि को अपनी बेटी की शादी से अधिक भात की चिंता सता रही थी। ससुराल तो बहुत सम्पन्न था लेकिन उसके भाई की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। कई बार मन किया पति से बात करे लेकिन उसके खुर्राट स्वभाव के कारण कुछ कहने की हिम्मत जुटा नहीं पाई। पता नहीं क्या लाया होगा क्या नहीं, कैसे उसने अपनी व्यवस्था की होगी, उस गरीब का पैसा भी खर्च होगा फिर भी सब उसके दिए कपड़ों का मजाक ही बनाएंगे।
भात शुरू हुआ। गीतों में उसका ध्यान बार-बार साधारण कपड़े पहने भाई भाभी के चेहरे की ओर जा रहा था। भाई खड़ा हुआ। सबसे पहले सास ससुर को कपड़े दिए गए। ससुर का सूट और सास के लिए महंगी जरी की साड़ी दी गई। सास बहुत खुश हो गयी। अगला नंबर जेठ जेठानी का था। भाई ने ऐसी साड़ी दी कि जेठानी देखती रह गई। दुल्हन, रश्मि और उनके परिवार का नंबर आया। सभी को उनकी मनपसंद ड्रेस मिली। रश्मि के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। सभी ओर उसके भाई की प्रशंसा होने लगी। अंत में भाई के गले मिलते समय रश्मि को रोना आ गया।
‘कैसे किया रे ये सब?’ पूछ लिया।
‘अकेले में बताऊंगा दीदी। सब जीजा जी का किया है मैं तो माध्यम हूं।’
रश्मि ने पति के लिए नजर दौड़ाई। मन ही मन कहा ‘खुर्राट हमेशा दिल जीत ले जाता है।’
‘कैसे किया रे ये सब?’ पूछ लिया।
‘अकेले में बताऊंगा दीदी। सब जीजा जी का किया है मैं तो माध्यम हूं।’
रश्मि ने पति के लिए नजर दौड़ाई। मन ही मन कहा ‘खुर्राट हमेशा दिल जीत ले जाता है।’