बुरी खबर सुनाने के भी हैं नियम
रविन्द्र बताते हैं कि इतने साल में वह सीख गए हैं कि किस तरह परिवारों को दुखद समाचार दिया जाए। वह कहते हैं, पहला नियम है कि कभी भी फोन पर ऐसी खबर नहीं देनी चाहिए, जरूरी नहीं कि सभी इस सदमे को झेल सकें। इसकी जगह, मैं फोन करके कहता हूं कि उनके रिश्तेदार को कुछ चोट आई है और अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है। जब वे अस्पताल पहुंचते हैं तब हम उन्हें असलियत बताते हैं।
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तहजीब का रखना होता है ध्यान
हादसे के शिकर लोगों के पास अधिकतर मामलों में पत्नी, मां या परिवार के किसी सदस्य का फोन नंबर होता है। रविन्द्र कुमार शुरूआत में कभी नहीं कहते कि थाने से बोल रहे हैं। कभी मित्र तो कभी परिचित बनकर बात की जाती है। बाद में यह पता किया जाता है परिवार के पुरूष सदस्य कौन है। उनसे बात होने पर ही थाना या पुलिस का नाम लिया जाता है।
मुश्किल काम: मृतक का सामान सौपना और शिकायत लेना
मौत की सूचना के बाद दूसरा मुश्किल काम होता है गमजदा परिवार को मृतक का सामान सौंपना व कागजी कार्रवाई के लिए तैयार करना। मृतक का पर्स, मोबाइल फोन जैसे सामान जब परिजनों को सौंपे जाते हैं तो उन्हें उनमें उसकी यादें दिखाई देती है। कई बार तो परिवारों को इतना सदमा लगता है कि वे सच को स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं होते हैं।
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रोते-बिलखते लोगों के बीच बीत रहा जीवन
दुर्घटना थाने में तैनात रविन्द्र कुमार व उनके साथियों का जीवन कभी ट्रोमा सेंटर तो कभी मुर्दाघरों के बाहर रोते, बिलखते परिजनों के बीच बीत रहा है। रात के समय हादसा होने पर घायलों को अस्पताल पहुंचाना, उनका उपचार करवाना। रविन्द्र कुमार कहते हैं कि कई बार तो चिकित्सकों से घायलों का उपचार करने के लिए मिन्नते तक करनी पड़ती है। एक्सरे, ईसीजी, एमआरआई जैसी जांच के लिए ट्रोली को खींचना तो आम है।