शहर में एक घड़ी ऐसी है जो ऐतिहासिक और बेशकीमती है। सौ साल पहले तीन लाख रुपए में यह घड़ी लगवाई गई जो आज की 18 करोड़ की राशि के बराबर है। यह अनूठी घड़ी पूरे विश्व में मात्र दो जगह पर है। इनमें एक ऐतिहासिक घंटाघर पर चलती है। दूर-दराज के पर्यटक इसे देखने आते हैं और इसकी तकनीक को देखकर दंग रह जाते हैं, लेकिन आज तक यह घड़ी किसके दम पर चल रही है, यह कोई नहीं जानता।
अब हम बताना चाहेंगे कि इसे चलाने के पीछे बिना डिग्री के इंजीनियरों का बहुत बड़ा योगदान है। इसके बंद होने पर जहां कंपनी के इंजीनियरों ने हाथ खड़े कर दिए। उस समय शहर के दूसरी पास मो. अल्लाह नूर ने इसे फिर से संवार कर ठीक किया और आज भी इनके पुत्र और पौत्र इस घड़ी की देखभाल करते आ रहे है, लेकिन सरकार की नजर में यह घड़ी और इनका परिवार आज भी उपेक्षित है।
घड़ी का इतिहास
सन् 1910 में राजा सरदार सिंह के शासनकाल में नई मंडी के पास सरदार मार्केट बना। चौपड़ की आकृति के बने इस मार्केट के बीचों-बीच 100 फीट ऊंचे घंटाघर का निर्माण करवाया गया। जहां यह घड़ी 1911 में लंदन की लुण्ड एंड ब्लोकली कंपनी द्वारा लगाई गई। यह घड़ी घंटाघर की मीनार में ऊपर की तीन मंजिलों में लगी है।
इस तरह चलती है घड़ी
घंटाघर में लगी यह घड़ी साधारण घडिय़ों की तरह फनर से नहीं चलती। इसे चलाने के लिए तीन मोटे तारों में अलग-अलग ठोस लोहे के तीन भार लटके हुए हैं। ज्यों-ज्यों घड़ी चलती है, यह भार नीचे आते चले जाते हैं और एक सप्ताह में पूर्ण नीचे आ जाते हैँ। सप्ताह भर बाद इस घड़ी में फिर से तीन चाबियां भरी जाती है और तीनों भार ऊपर पहुंच जाते हैं। इनमें से एक भार 15 मिनट का हैे, यानि हर मिनट में घड़ी में टकोरे बजते हैं। दूसरा भार आधे घंटे का और तीसरा भार एक घंटे का है। इसमें जितना समय हुआ है उतने ही टकोरे बजते हैं।
घड़ी खराब हुई तो कंपनी ने हाथ खड़े किए
घंटाघर में लगी यह घड़ी सन् 1991 में खराब हुई। उस समय कंपनी को इसके बारे में बताया गया, लेकिन कंपनी ने घड़ी के पाटर््स नहीं होने के कारण इसे ठीक करने से हाथ खड़े कर दिए। नगर निगम ने सरकार को इस बारे में कई पत्र लिखे गए। इसके बाद शहर के एक लुहार मो. अल्लाह नूर जो दूसरी पास थे। उन्होंने इसे ठीक करने का प्रस्ताव भिजवाया। उन्होंने इस घड़ी के बुश और कीरा जो कि खराब हो गए थे, फिर से हूबहू तैयार किए। जिसके बाद 26 अगस्त 1996 में यह घड़ी फिर से चालू हो सकी।
अब इसी परिवार के जिम्मे घड़ी
ठीक होने के बाद सरकार ने इस घड़ी के रखरखाव के लिए मो.अल्लाह नूर को दो हजार रुपए में नियुक्ति दे दी। इनके निधन के बाद से 10 सितम्बर 2009 को सरकार ने इनके बेटे मो. इकबाल को घड़ी चालू रखने का जिम्मा सौंपा। 2014 में घंटाघर को दर्शको के लिए खोला गया, इस दौरान मो. इकबाल को इस घड़ी का पारिश्रमिक 6 हजार रुपए दिया जाने लगा। अब ये भी 55 साल के हो गए हैं और इनके पुत्र मो. शकील इस घड़ी की देखभाल करते हैं।
विरासत से नहीं है सरकार को सरोकार
सरकार ने इस ऐतिहासिक घड़ी को चलते रहने के पीछे जानने की कोशिश तक नहीं की। हालांकि स्वायत्तशासन विभाग ने 8 जून 1889 में मो. इकबाल को नियमित करने के आदेश दिए, लेकिन निगम प्रशासन ने ये आदेश नहीं माने। ऐसे में यह परिवार इस घड़ी के रख रखाव से हाथ पीछे कर ले तो आज इस ऐतिहासिक घड़ी की देखभाल करने वाला कोई व्यक्ति नहीं है।
गरीबी में जी रहा परिवार
इस ऐतिहासिक घड़ी को ठीक करने वाले मो. इकबाल आज भी 6 हजार रुपए में अपना जीवन यापन कर रहे हैं, इनके साथ इनके बेटे भी इस घड़ी की देखभाल करने जाते हैं। लेकिन सरकार ने इस परिवार को स्थाई जिम्मा सौंपना तो दूर की बात, सम्मानित तक नहीं किया और आज भी ऐतिहासिक विरासत को संभालने वाला यह परिवार अंधेरे तले जीवन गुजारने को मजबूर है।
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