ये बोली साहित्य के लिहाज से बेहद समृद्ध है । राजस्थान के पश्चिमी भाग में जिसमें जाेधपुर, जैसलमेर , बीकानेर और शेखावाटी में मारवाड़ी बाेली जाती है। वैसे तो ये शुद्द रूप से जोधपुर की बोली है, लेकिन बाड़मेर ,पाली, नागौर और जालौर जिलों में इसका चलन है। साहित्यिक मारवाड़ी काे डिंगल कहा जाता है। मारवाड़ी बोली की कई उप-बोलियां भी हैं जिनमें ठटकी, थाली, बीकानेरी, बांगड़ी, शेखावटी, मेवाड़ी, खैराड़ी, सिरोही, गौड़वाडी, नागौरी, देवड़ावाटी शामिल है। राजस्थानी को भाषा का दर्जा दिलाने की मुहिम में मारवाड़ी साहित्यकार और मारवाड़ की अगुवाई में 1960 के दशक से साहित्यिक आंदोलन चल रहा है। हालांकि जोधपुर समेत पश्चिमी जिलों में मारवाड़ी का चलन है लेकिन साहित्यकार इसे प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत की अगुवाई करने वाली बोली कहते हैं। हालांकि भाषाई समृद्धता में बाकी बोलियां भी पीछे नहीं है लेकिन राजस्थानी साहित्य के भाषाई आंदोलन में मारवाड़ी की अग्रणीय भूमिका है।
वागड़ी, मुख्य रूप से राजस्थान के डूंगरपूर, बांसवाड़ा आैर दक्षिणी-पश्चिमी उदयपुर के पहाड़ी इलाकाें में बोली जाती हैं। गुजरात की सीमा के समीप के क्षेत्रों में भी गुजराती-वागड़ी बोली का अधिक प्रचलन है। इस बोली की भाषागत विशेषताओं में च, छ, का, स, का है का प्रभाव अधिक है और भूतकाल की सहायक क्रिया था के स्थान पर हतो का प्रयोग किया जाता है। वागड़ की धरती मुगलों के खिलाफ राजपूत और आदिवासियों के संयुक्त संघर्ष की कहानियों से भरी पड़ी है। मेवाड़ के संघर्ष में यहां के आदिवासियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और इसीलिए वागड़ी बोली की रचनाओं में आदिवासी अंचल के संघर्ष,जीवन-शैली और विरासत के खूब लोकगीत और दंतकथाएं मिलती है। यहां के बेणेश्वर धाम तीर्थ में संत मावजी की लिपिबद्ध पुस्तक मौजूद है जिसे स्थानीय लोग ‘मावजी महाराज का चौपड़ा’ कहते हैं। इस चौपड़े में मावजी महाराज की भविष्यवाणियां है, जिन्हें आज भी साल में एक बार इसी बोली में पढ़ा जाता है। ये बोली साहित्य की लिपियों में ही नहीं जनभाषा और लोकगीतों में रूप में आज भी लोगों की जीवनशैली में रची-बसी है।
जयपुर के आस-पास क्षेत्र में आम बोल-चाल में जिस बोली का प्रयोग होता है वो ढूंढाडी कही जाती है क्योंकि ये क्षेत्र ढूंढाड कहा जाता है। राजस्थान के मध्य-पूर्व यानि जयपुर, अजमेर, दाैसा, टाेंक के आसपास के क्षेत्राें में इस बाेली का प्रचलन है। कई उपबोलियों के साथ जयपुर के आस-पास के क्षेत्रों में ढूंढाड़ी आज भी पुराने दौर की तरह आधुनिक परिवेश में भी चलन में है। ढूंढाड़ की उपबोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागर, चौल उपबोलियां महत्वपूर्ण है। इस बोली में वर्तमान काल में छी, द्वौ, है आदि शब्दों का प्रयोग ज्यादा है।
ये मानिए कि ये भाषा उत्तरप्रदेश के उत्तर-पश्चिम और राजस्थान के उत्तर-पूर्वी हिस्से की एक संयुक्त सांस्कृतिक विरासत है। राजस्थान में भगवान कृष्ण की लीला स्थली ब्रज के चौरासी कोस का हिस्सा भरतपुर,धौलपुर और अलवर है तो उत्तर-पूर्व में मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल, महाबन, वलदेव, नन्दगांव, वरसाना, कामबन आदि भगवान श्रीकृष्ण के सभी लीला-स्थली है। पूरे चौरासी कोस में कृष्णलीलाओं से रचा-बसा ब्रज साहित्य इस बोली को भाषा का दर्जा दिलाने में समर्थ है। राजस्थानी भाषा से कई मायनों में ब्रज बोली अलग है और इसीलिए राजस्थानी को भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के मसले पर यहां के साहित्यकार और आमजन अलग राय रखते हैं। मारवाड़ी और ब्रज के बीच साहित्य का सेतू बनते ही राजस्थानी देश की अनोखी समृद्धशाली भाषा बन सकती है।
अरे घास री रोटी, जद बिलावड़ो ले भाग्यो ….महाराणा प्रताप के संघर्ष की इस कालजयी काव्य रचना में मेवाड़ी शब्दों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। मेवाड़ी बोली, दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिलों में मुख्य रुप से बोली जाती है। मेवाड़ी में मारवाड़ी के अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। इस बाेली में केवल ए और औ की ध्वनि के शब्द अधिक प्रयाेग में लिए जाते हैं। मेवाड़ी बोली में महाराणा प्रताप और अकबर के युद्द के किस्सों से लेकर गणगौर के लोकगीत, जनश्रुतियां रची-बसी है। आधुनिक परिवेश में भी मेवाड़ में मेवाड़ी बोली लगातार समृद्ध होती जा रही है।
आजादी से पहले मत्स्य प्रदेश की बोली मेवाती कही जाती है। मेवाती राजस्थान के पूर्वी जिलाें अलवर, भरतपुर, धाैलपुर आैर कराैली जिले के पूर्वी भागाें में बाेली जाती है। इन जिलों के अन्य शेष भागों में बृज भी बाेली जाती है। मेवाती में कर्मकारक में लू विभक्ति एवं भूतकाल में हा, हो, ही सहायक क्रिया का प्रयोग होता है।
रांगड़ी बाेली मुख्य रूप से राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी भाग में बाेली जाती है। यह बाेली मालवी आैर मारवाड़ी के मेल से बनी है। इसीलिए रांगड़ी बोली पर सब बाेलियाें का प्रभाव है। रांगड़ी राजपूतों में ज्यादा प्रचलित है।
झालावाड़, कोटा और प्रतापगढ़ जिलों में मालवी बोली का प्रचलन है। यह भाग मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के समीप है। हाड़ौती
हाड़ौती प्रमुख रूप से काेटा, बूंदी, झालावाड़ आैर उदयपुर के पूर्वी भागाें में बाेली जाती है
राजस्थानी भाषा को मान्यता देने का मामला केन्द्र सरकार के पास अटका पड़ा है। राजस्थान में असल राजस्थानी भाषा कौनसी इसे लेकर लंबे अर्से से साहित्यकारों में विरोधाभास रहा है। ब्रज,वागड़ समेत अन्य कई क्षेत्रों में आम जन से लेकर साहित्यकार मानते हैं कि आज राजस्थानी भाषा के रूप मे जो भाषा सामने आ रही है उसमें ज्यादातर अंश पश्चिमी राजस्थानी की मारवाड़ी बोली का ही है। इतिहास में बदलाव के अलग-अलग दौर में भी मारवाड़ी हिन्दी भाषा से अन्य बोलियों की तुलना में कम प्रभावित हुई और आजादी के बाद राजस्थान में विकास पूर्वी हिस्से में ज्यादा हुआ इसीलिए यहां बसे लोगों का अन्य राज्यों से संपर्क बढ़ाने के लिए हिन्दी का उपयोग ज्यादा होता रहा।
– धरती धोरां री अमरकृति लिखने वाले पद्मश्री कन्हैयालाल सेठिया
– कई अमर कहानियों के रचियता पद्मश्री विजयदान देथा
– राजस्थानी कृतियों की अनुपम रचनाकार पद्मश्री रानी लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत
– राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा शब्दकोष तैयार करने वाले पद्मश्री सीताराम लालस
— अन्नाराम सुदामा
– मणि मधुकर
– यादवेन्द्र शर्मा चंद्र
– किशोर कल्पनाकांत
– अब्दुल वहीद क़लम