समाज ने रोका, लोकनृत्य से बनाई पहचान
गुलाबो बताती हैं कि वह राजस्थान की जिस घुमंतु आदिवासी समुदाय से आती हैं, वहां लड़कियों को डांस कराने की मनाही थी। दो साल की उम्र से ही वह अपने पिता के साथ बीन की धुन और डफली की थाप पर सांपों के साथ नाचती थीं। समाज को उनका डांस करना पसंद नहीं था, लेकिन अपने पिता भैरुनाथ की प्रेरणा से उन्होंने सांपों के खास शैली में नाचने को सपेरों के कालबेलिया डांस के रूप में पहचान दिलाई।
सात भाई-बहनों में सबसे छोटी गुलाबो को पैदा होने के पांच घंटे बाद ही जमीन गाड़ दिया गया था। घुमंतु कालबेलिया आदिवासी समुदाय में बेटियों को जन्म लेते ही जमीन में दफ्ना देने की कुरीति थी। हालांकि, पांच घंटे बाद जमीन में दफ्न रहने के बाद भी वह जिंदा रहीं। 1981 में उन्होंने पुष्कर मेले में अपनी पहली पेशेवर प्रस्तुति दी। उसके बाद वह जयपुर आईं और यहां ट्यूरिज्म डिपार्टमेंट के लिए परफॉर्म करने लगीं।
आज समाज का गौरव बनीं गुलाबो
गुलाबो ने बताया कि यह डांस मेरे साथ ही जन्मा और आगे बढ़ा है। समाज के लोगों ने उन्हें डांस करने के कारण समाज से बाहर निकाल दिया। उन्हें समाज का कलंक कहा जाता था, बावजूद इसके उन्होंने डांस करना नहीं छोड़ा। संघर्ष के उन दिनों, 1984 में अमरीका में जब पहली बार परफॉर्मेंस देने गईं, तो कुछ दिन पहले ही उनके पिता का निधन हो गया। बावजूद उसके वह पिता की स्वप्रेरणा से अमरीका जाकर न केवल परफॉर्म करके आईं, बल्कि पूरी दुनिया में राजस्थान के लोकनृत्य कालबेलिया डांस को नई पहचान दिलाई।
बेटियों को दिलाया जीने का अधिकार
कभी समाज का कलंक कहने वाले बिरादरी के लोग आज गुलाबो को समाज गौरव कहते हैं, जिसने घुमंतु आदिवासी समुदाय की बेटियों को न केवल डांस के बूते जीने का अधिकार दिलाया, बल्कि सम्मान के साथ रोजगार का रासता भी खोला। गुलाबो अब अपने गृहनगर अजमेर में डांस स्कूल खोलना चाहती हैं, ताकि नई पीढ़ी को कालबेलिया डांस का प्रशिक्षण देकर इसे आगे बढ़ाएं। उनकी बेटी ने भी हायर एज्युकेशन के बावजूद कालबेलिया डांस में अपनी पहचान बनाई है।