इसके कुछ दिन बाद विलायत से एक अंग्रेज दंपती विल फ्रायड माधो सिंह के मेहमान बनकर आए। उन्होंने चीता देखने की इच्छा जताई तब माधो सिंह ने उनसे कहा कि ढूंढाड़ के जंगलों में चीते लुप्त होने के बाद हमारे पालतू चीते भी मर चुके हैं। तब उस दंपती ने जयपुर से जाते समय इंग्लैंड से चीते भेजने का वादा किया था।
जयपुर फाउंडेशन के सियाशरण लश्करी के मुताबिक विल फ्रायड की इंग्लैंड में अचानक मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने अप्रैल 1921 में चीते के दो शावक कावस जदीन फर्म के जरिए जयपुर भेजे थे। समुद्री जहाज से मुंबई पहुंचे उन चीतों को रेल से जयपुर लाया गया। एक चीते की मृत्यु के पांच साल बाद जीवित बचे दूसरे चीते को रामनिवास बाग के जंतुघर में रखा गया। इस चीते को पालने वाले नन्हे खान को 26 अगस्त 1931 से खुराक के पेटे दस रुपए मासिक दिए गए थे।
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तब मुंह पर छीका लगे हिंसक चीते चौपड़ घूमने आते थे
जयपुर के तत्कालीन राजा पालतू चीतों से हिरण आदि जंगली जानवरों का शिकार करवाते थे। रामगंज में चीतावालों के मोहल्ले में इन चीतों को घरों में पाला जाता था। मुगल शासन में एक चीता पालक वाजिद खान अफगानिस्तान से परिवार सहित दिल्ली आया था। अकबर की अजमेर यात्रा के दौरान सांगानेर के जंगल में चीते से हिरण का शिकार कराया था।
तत्कालीन महाराज जगत सिंह ने चीता पालक निजामुद्दीन को अलवर से बुलाकर जयपुर में बसाया था। चीता पालक चीते के मुंह पर छींका व गले में चमड़े की बेल्ट बांध बड़ी चौपड़ तक घुमाने लाते। चीते की आंखों में पट्टी बांध शिकार करवाने के लिए बैलगाड़ी से जंगल में ले जाया जाता था। अंग्रेज़ मेहमानों को चीते से शिकार करने का चाव रहता था। ऐसे में अंग्रेज हाकिमों को खुश करने के लिए घने जंगल में शिकार कैंप लगाकर उनके सामने चीते को शिकार के लिए छोडा जाता।
वह चीता शिकार को मुंह में दबा कर वापस जाता तब मेहमान ख़ुशी से झूम उठते। मोहल्ला चीतावालान के पूर्वज निजामुद्दीन का मकान निजाम महल कहलाता है। वर्ष 1928 में अजीमुद्दीन के पास चीता पालने का लाइसेंस था। पर्यटन अधिकारी रहे गुलाब सिंह मिठड़ी के मुताबिक 80 मील/घंटे की रफ्तार से दौड़ता चीता पलक झपकते ही शिकार को मुंह में दबा कर लाता और मेहमान के सामने रख देता।