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जयपुर

राजस्थान में है चौथ माता का सुप्रसिद्ध मंदिर, माता ने राजा को दर्शन देकर दिया था बनवाने का आदेश

चौथ का बरवाड़ा राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में एक छाेटा सा कस्बा है। यहां सबसे प्राचीन आैर सुप्रसिद्ध चौथ माता का मंदिर स्थित है।

जयपुरJan 05, 2018 / 12:54 pm

Santosh Trivedi

Chauth Mata Mandir
जयपुर। गणेश पूजा में सकट चतुर्थी व्रत की बहुत महिमा मानी जाती है। इस पर्व को संकट चतुर्थी व्रत के अलावा वक्रतुंडी चतुर्थी, माघी चौथ और तिलकुटा चौथ व्रत भी कहा जाता है। राजस्थान में इस व्रत को पूरी श्रद्धा के साथ रखा जाता है। हिंदू कैलेंडर के हिसाब से यह व्रत माघ माह की चतुर्थी को आता है। । सकट चौथ व्रत संतान की लंबी आयु के लिए किया जाता है। राजस्थान में तिलकुटा चाैथ के अवसर पर चौथ का बरवाड़ा में मेला भरता है।

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रेलवे प्रशासन की ओर से मेले के दौरान अतिरिक्त यात्री भार को देखते हुए सवाईमाधोपुर-जयपुर-सवाईमाधोपुर मेला स्पेशल रेल सेवा का संचालन किया जा रहा है। चौथ का बरवाड़ा राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में एक छाेटा सा कस्बा है। यहां सबसे प्राचीन आैर सुप्रसिद्ध चौथ माता का मंदिर स्थित है। वैसे तो रोजाना ही माता मंदिर में भक्तों की भीड़ रहती है पर यहां हर माह में चतुर्थी पर मेला लगता है।
साल में चार चौथ बड़ी आती है, जिसमें एक ही दिन में डेढ़ से दो लाख माता के भक्त दर्शनों के लिए आते हैं। इस मंदिर की स्थापना 1451 में यहां के शासक भीम सिंह ने की थी। करीब 1100 फीट ऊंची पहाड़ी पर विराजमान चौथ माता जन-जन की आस्था का केन्द्र है। मंदिर तक पहुंचने के लिए 700 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। देवी की मूर्ति के अलावा, मंदिर परिसर में भगवान गणेश और भैरव की मूर्तियां भी दिखाई पड़ती हैं।
एक किंवदंती के अनुसार कहां जाता है कि प्राचीन काल में चौरू जंगलों में एक भयानक अग्नि पुंज का प्राक्ट्य हुआ, जिससे दारूद भैरो का विनाश हुआ था। इस प्रतिमा के चमत्कारों को देखकर जंगल के आदिवासियों को प्रतिमा के प्रति लगाव हो गया और उन्होंने अपने कुल के आधार पर चौर माता के नाम से इसकी पूजा करने लगे। बाद मे चौर माता का नाम धीरे- धीरे चौरू माता एवं आगे चलकर यही नाम अपभ्रंश होकर चौथ माता हो गया। वर्षों बाद चौथ माता की प्रतिमा चौरू के विकट जंगलों से अचानक विलुप्त हो गई, जिसका परमाण सही रूप से कहना बड़ा मुश्किल है।
मगर इसके वर्षों बाद यही प्रतिमा बरवाड़ा क्षेत्र की पचाला तलहटी में महाराजा भीमसिंह चौहान को स्वप्न में दिखने लगी, लेकिन भीमसिंह चौहान ने इसे अनदेखा कर दिया। कहां जाता है कि एक बार महाराजा भीमसिंह चौहान को रात में स्वप्न आया कि शिकार खेलने की परम्परा को मैं भूलता जा रहा हूं। इसी स्वप्न की वजह से महाराजा भीमसिंह चौहान ने शिकार खेलने जाने का निश्चय किया। महाराजा भीमसिंह चौहान बरवाड़ा से संध्या के वक्त जाने का निश्चय किया एवं शिकार करने की तैयारी करने लगे।
भीमसिंह चौहान की रानी का नाम रत्नावली था। कहा जाता है कि रत्नावली ने राजा भीमसिंह चौहान को शिकार पर नहीं जाने के लिए बहुत मना किया। मगर भीमसिंह ने यह कहकर बात को टाल दिया कि चौहान एक बार सवार होने के बाद शिकार करके ही नीचे उतरते हैं। इस प्रकार रानी की बात को अनसुनी करके भीमसिंह चौहान अपने सैनिकों के साथ घनघौर जंगलों की तरफ कूच कर गए। शाम का समय था लेकिन भीमसिंह चौहान जंगलों में शिकार की खोज हेतु बढ़ते ही रहे।
तभी महाराजा भीमसिंह चौहान की नजर एक मृग पर पड़ी और उन्होंने मृग का पीछा करना शुरू कर दिया। सैनिक भी राजा के साथ बढ़ने लगे, लेकिन जंगलों में रात हो जाने के कारण सभी सैनिक आपस में एक दूसरे से भटक गए। महाराजा भीमसिंह ने रात हो जाने के कारण मृग का पीछा आवाज को लक्ष्य बनाकर करने का निश्चय किया और मृग की ओर बढ़ते चले गए। मृग धीरे धीरे भीमसिंह चौहान की नजरों से ओझल हो गया। जब तक राजा के सभी सैनिक राजा से रास्ता भटक चुके थे।
भीमसिंह चौहान ने चारों तरफ नजरें दौड़ाई मगर उसके पास कोई भी सैनिक नहीं रहा और पानी के श्रौत को खोजने लगे क्योंकि उनको प्यास बहुत सताने लगी थी। बहुत कोशिश के बाद भी जब पानी नहीं मिला तो भीमसिंह चौहान मूर्छित होकर जंगलों में गिर पड़े। भीमसिंह को स्वप्न में पचाला तलहटी में वही प्रतिमा दिखने लगी। तभी अचानक भयंकर बारिश होने लगी एवं मेघ गरजने लगे व बिजली कड़कने लगी, जब राजा की बारिश के कारण मूर्छा टूटी तो राजा देखता है कि चारों तरफ पानी ही पानी नजर आया।
राजा ने पहले पानी पिया और देखा कि एक बालिका अंधकार भरी रात में स्वयं सूर्य जैसी प्रकाशमय उज्ज्वल बाल रूप में कन्या खेलती नजर आई। भीमसिंह चौहान उस कन्या को देखकर थोड़ा भयभीत हुआ और बोला कि हे बाला इस जंगल में तुम अकेली क्या कर रही हो? तुम्हारे मां-बाप कहां पर है। राजा की बात को सुनकर नन्ही बालिका हंसने लगी और तोतली वाणी में बोली कि हे राजन तुम यह बताओ की तुम्हारी प्यास बुझी या नहीं। इतना कहकर भगवती अपने असली रूप में आ गई। इतना होते ही राजा मां के चरणों में गिर गया और बोला हे आदिशक्ति महामाया मुझे आप से कुछ नहीं चाहिए अगर आप मुझ पर खुश हो तो हमारे क्षेत्र में आप हमेशा निवास करें ।
राजा भीमसिंह चौहान को माता चौथ ने कहां हे राजन तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। यह कहकर माता अंतर्ध्यान हो गई। जहां पर महामाया लुप्त हुई वहां से राजा को चौथ माता की प्रतिमा मिली। उसी चौथ माता की प्रतिमा को लेकर राजा बरवाड़ा की ओर चल दिया। बरवाड़ा आते जनता को राजा ने पूरा हाल बताया और संवत 1451 में आदिशक्ति चौथ भवानी की बरवाड़ा में पहाड़ की चोटी पर माघ कृष्ण चतुर्थी को विधि विधान से स्थापित किया। तब से लेकर आज तक इसी दिन चौथ माता का मेला भरता है जिसमें लाखों की तादाद में भक्त मां का आशीर्वाद लेने आते हैं।

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