611 साल पुरानी परंपरा तोड़, बगैर राज परिवार के शुरू करवा दिया गया बस्तर दशहरा
बस्तर दशहरा का विकास
आदिवासियों की अभूतपूर्व भागीदारी की वजह से भी इस पर्व को जाना जाता है। आदिवासियों ने प्रारंभिक काल से ही बस्तर के राजाओं को हर तरह से सहयोग दिया। इसका परिणाम यह निकला, बस्तर दशहरा का विकास एक ऐसी परंपरा के रूप में हुआ जिस पर आदिवासी समुदाय ही नहीं समस्त छत्तीसगढवासी गर्व करते हैं। बस्तर राज्य के समय परगनिया, मांझी, मुकद्दम, कोटवार व ग्रामीण दशहरे की व्यवस्था में समय से पहले ही जुट जाया करते थे। आज यह व्यवस्था शासन-प्रशासन करता है लेकिन पर्व का मूलस्वरुप आज भी वैसा ही बना हुआ है।
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राजा पुरूषोत्तम देव ने शुरू किया रथ चालन
एक अनश्रुति के अनुसार बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा कर मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्ण भूषण तथा सामग्री भेंट में अर्पित की थी। इस पर पुजारी को स्वप्न आया था। स्वप्न में श्री जगन्नाथ ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित करने के लिए पुजारी को आदेश दिया था। कहते हैं, राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा पर्व पर रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी। राजा पुरुषोत्तम देव ने फागुन कृष्ण चार दिन सोमवार संवत 1465 को 25 वर्ष की आयु में शासन की बागडोर संभाली थी।