प्रेमशंकर तिवारी, जबलपुर। संघर्ष जीवन का दूसरा नाम है। इस संग्राम में जो जीतता है, दुनिया उसे ही याद रखती है। रामचरित मानस के माध्यम से मानव जाति को अनुशासन, कर्तव्य, जिम्मेदारी और मर्यादा की सीख देने वाले गोस्वामी तुलसीदास भी इन्हीं में से एक हैं। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि वे मां की गर्भ में थे तभी उनके दूध के दांत आ गए थे। उनका जन्म 9 महीने की बजाय 12 महीने में हुआ। जन्मते ही मां का साया छिन गया। अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्मने की वजह से पिता ने नाता तोड़ लिया। वे दर-दर भटके लेकिन हार नहीं मानी…। संघर्ष, जीवटता और महान कार्यों के कारण ही जयंती पर कल रविवार 30 जुलाई को पूरी दुनिया उन्हें याद करेगी। आइए तुलसीदासजी से जुड़े कुछ रहस्य आपके साथ भी साझा करते हैं। READ ALSO : बेहद चत्कारी है ये शिवलिंग, दर्शन मात्र से दूर हो जाती है हर बाधा जन्म लेते ही बोल पड़े साहित्याचार्य पं. आरएस गौतम के अनुसार गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म संवत् 1554 में श्रावण शुक्ल पक्ष की सप्तमी को उत्तर प्रदेश, चित्रकूट जिले के राजापुर गांव में आत्माराम दुबे के घर पर हुआ। उनकी मां का नाम हुलसी देवी था। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि तुलसीदासजी बारह माह तक मां के गर्भ में रहे। गर्भ के दौरान ही उनके मुंह में दूध के दांत आ गए थे। जन्म लेते ही उनके मुंह से सबसे पहले राम का नाम निकला। यह सुनकर लोग हैरान रह गए और उनका नाम ही राम बोला रख दिया। छिना मां का साया, पिता ने त्यागा तुलसीदासजी के जन्म के बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया। चूंकि तुलसीदासजी का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था इसलिए इसे अशुभ मानते हुए पिता आत्माराम ने भी उनका त्याग कर दिया। बालक तुलसीदास को चुनिया नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं भी विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पांच वर्ष के हुए तो चुनिया भी दुनिया छोड़कर चली गई। राम बोला अनाथों की तरह जीवन बिताने लगे। फिर चला संघर्ष मां की मौत, पिता के परित्याग और फिर पालनहार बनी चुनिया दायी की मौत के बाद राम बोला अकेले रह गए। वे भिक्षा मांगकर उदर पोषण करने लगे। यूं कि खेलने-कूदने की उम्र में ही उनके संघर्ष की कहानी शुरू हो गई। भिक्षा मांगकर उदर पोषण करना। किसी ने दिया तो खा लिया। पहन लिया, नहीं तो अपने मस्त जैसा फकीरी जीवन उनके हिस्से में आया। बस हौसला ही था, जो कि उनके साथ रहा। उन्होंने कभी खुद को निराश नहीं होने दिया। हर वक्त मुस्कुराते हुए जीवन का सामना किया। ऐसा मिला ये नाम कथाकार गणेश प्रसाद दुबे बताते हैं कि यहां वहां विचरण करते हुए राम बोला यानी तुलसीदास जी की भेंट प्रसिद्ध संत नरहरि बाबा से हो गई। वे उन्हें साथ में अयोध्या ले गए। सभी संतों ने उनसे गायत्री मंत्र सुनाने को कहा तो रामबोला ने न केवल गायत्री मंत्र पढ़कर सुनाया बल्कि उसका भावार्थ भी बता दिया। इससे खुश होकर नरहरि बाबा ने संवत 1561 को उनका यज्ञोपवीप संस्कार कराया। उनका अध्ययन अध्यापन शुरू कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वे गुरु-मुख से जो सुन लेते थे, वह उन्हें एक ही बार में कंठस्थ हो जाता था। यहीं पर गुरु के आदेश पर राम बोला को तुलसीदास का नाम दिया गया। विवाह और फिर विरक्ति शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूंकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे काशी चले गये और वहां शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। पत्नी से मुलाकात के लिए मुर्दे को पकड़कर गंगा जी को पार करना और फिर पत्नी हिदायत ने उनके मन विरक्ति का दीपक जलाया। विरक्ति के इसी दीपक के माध्यम से उन्होंने रामचरित मानस जैसे ग्रंथ की रचना करके दुनिया को अनूठा संदेश दिया। READ ALSO : यहां मिला दुर्लभ मणिधारी नाग, सवा लाख लोगों की मौत के बाद होता है इसका जन्म लिखे कई ग्रंथ – गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने जीवनकाल में 12 ग्रन्थ लिखे। उन्होंने संस्कृत के साथ ही हिन्दी भाषा के सवज़्श्रेष्ठ कवियों में माना जाता है। – तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी। उन्हें कैलीग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। – गोस्वामी तुलसीदासजी की पत्नी रत्नावली ने एक स्वरचित दोहे के माध्यम से तुलसीदास को शिक्षा दी। इस दोहे से प्रभावित होकर वह श्रीराम की भक्ति में लीन हो गए। – उनकी भक्ति से प्रभावित होकर ही हनुमानजी और श्रीराम-लक्ष्मण ने उन्हें गंगा किनारे साक्षात् दर्शन दिए।