आमतौर पर लोग इसे बिहार का विशिष्ट पर्व बताते हैं, लेकिन ये सच नहीं है। सूर्योपासना का ये पर्व प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। रामायण काल और महाभारत काल में भी इसका उल्लेख मिलता है। यह पूरी तरह से प्रत्यक्ष देव सूर्यनारायम की पूजा है। खास बात ये कि इसमें अगर छठी मैया से संतान की कामना की जाती है, संतान के उज्ज्वल भविष्य की कामना की जाती है। संतान के लिए आरोग्यता का वर मांगा जाता है। यहां ये भी बता दें कि जो भी दंपति संतति कामना से ये वर्त करते हैं उसमें पुत्र या पुत्री का भेद नहीं होता। प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार मांग संतति की ही होती है। इस अनुष्ठान्न के लिए अनिवार्य शर्त स्वच्छता है, जो मनसा, वाचा, कर्मणा होनी चाहिए। इस महापर्व के लिए पारंपरिक गीत प्रचलित हैं जो अब घर-घर गूंजने लगे हैं।
ये भी पढें- डाला छठः जानें कब है छठ, कब से शुरू होगा व्रत अनुष्ठान, कब दिया जाएगा पहला अर्घ्य कहा जाता है कि व्रती जन के साथ पूरा परिवार या यूं कहें कि पूरा कुटुंब इस महा पर्व की तैयारी में महीने भर पहले से ही जुट जाता है। खेतों से बांस की कटाई होती है ताकि बहंगी बनाई जा सके। वो इसलिए कि इसी बहंगी पर समस्त पूजन सामग्री रख कर व्रतीजन व उनके परिवारजन घर से घाट तक जाते हैं। स्वच्छता की बात यहां तक है कि इस पूजन के लिए घर या पूजन कक्ष ही नहीं बल्कि घर से घाट तक के मार्ग की भी सफाई पर ध्यान रखा जाता है।
लोकआस्था के इस महापर्व में लोक गीतों का खास महत्व है। लोक गीतों के माध्यम से ही महापर्व का बखाना किया जाता है। ऐसे में छठ पर्व को लेकर ये पारंपरिक गीत अब घरों में गूंजने लगे हैं। छठ व्रती इन गीतों को गाते-गुनगुनाते हुए ही नदी, सरोवर, कुंड तक जाते हैं।.
छठ महा पर्व के पारंपरिक गीत दर्शन दहू न अपार हे दीनानाथ….
उगS हे सूरज दव अरघ के बेरिया…
मरबो रे सुगवा धनुष से कांचहिं बांस के बहंगिया…
महिमा बा अगम अपार हे छठ मइया…
केलवा जे फरेले घवद से वोह पर सुगा मंडराए…
कांच ही के बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए…
होख न सुरुज देव सहिया बहंगी घाट पहुंचाय…
बाबा कांचें-कांचे बंसवा कटाई दीह फरा फराई दीह…
उगS हे सूरज दव अरघ के बेरिया…
मरबो रे सुगवा धनुष से कांचहिं बांस के बहंगिया…
महिमा बा अगम अपार हे छठ मइया…
केलवा जे फरेले घवद से वोह पर सुगा मंडराए…
कांच ही के बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए…
होख न सुरुज देव सहिया बहंगी घाट पहुंचाय…
बाबा कांचें-कांचे बंसवा कटाई दीह फरा फराई दीह…
इस सूर्योपासना के पर्व की ऐतिहासिकता की बात की जाए तो इसका उल्लेख विभिन्न धर्म ग्रंथों में मिलता है। छठ पूजा का इतिहास व महत्व
पुराणों व धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक सूर्योपासना, ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी आराधना का उल्लेक विष्णु पुराण, भागवत पुराण ब्रह्म वैवरित पुराण में मिलता है।
पुराणों व धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक सूर्योपासना, ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी आराधना का उल्लेक विष्णु पुराण, भागवत पुराण ब्रह्म वैवरित पुराण में मिलता है।
ये है मान्यता
ऐसी मान्यता है कि भगवान राम जब माता सीता संग स्वयंवर कर के घर लौटे थे तब उन्होंने सविधि कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को भगवान राम और माता सीता ने व्रत किया ता और सूर्य देव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्य देव से आशीर्वाद लिया था।
ऐसी मान्यता है कि भगवान राम जब माता सीता संग स्वयंवर कर के घर लौटे थे तब उन्होंने सविधि कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को भगवान राम और माता सीता ने व्रत किया ता और सूर्य देव की आराधना की थी। सप्तमी को सूर्योदय के समय फिर से अनुष्ठान कर सूर्य देव से आशीर्वाद लिया था।
कथा ये भी है कि जब पांडव जुए में अपना सर्वस्व हार गए थे तब पांडवों की दीन दशा को देखकर द्रौपदी ने छठ व्रत किया था जिसके बाद द्रौपदी की सारी मनोकामना पूर्ण हुई थी। माना जाता है कि तभी से इस व्रत को करने की प्रता चली आ रही है।
क्या है नहाय खाय
छठ पूजा चार दिनों का अनुष्ठान है। इसकी आरंभ नहाय-खाय से होता है। यह कार्तिक शुक्ल चतुर्थी तिथि को किया जाता है। इस दिन पवित्र नदी में स्नान कर सेंधा नमक में पके दाल-चावल और कद्दू का सेवन किया जाता है। व्रतीजन एक वक्त ही खाना खाते हैं। इस दिन सुबह स्नान-ध्यान के बाद चार दिवसीय सूर्य षष्ठी व्रत पर्व का संकल्प लिया जाता है।
छठ पूजा चार दिनों का अनुष्ठान है। इसकी आरंभ नहाय-खाय से होता है। यह कार्तिक शुक्ल चतुर्थी तिथि को किया जाता है। इस दिन पवित्र नदी में स्नान कर सेंधा नमक में पके दाल-चावल और कद्दू का सेवन किया जाता है। व्रतीजन एक वक्त ही खाना खाते हैं। इस दिन सुबह स्नान-ध्यान के बाद चार दिवसीय सूर्य षष्ठी व्रत पर्व का संकल्प लिया जाता है।
खरना
नहाय खाय से शुरू व्रत अनुष्ठान का दूसरा दिन यानी पंचमी तिथि को व्रतीजन दिन भर निराजल उपवास रखते हैं। फिर शाम के समय चंद्र उदय के बाद, चंद्रमा को अर्ध्यदान के पश्चात ही गुड़ से बनी खीर जिसे बखीर कहते हैं और शुद्ध आटे की रोटी जो घी में चुपड़ी हो उसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाता है। ये प्रसाद परिवार और पड़ोसियों, मित्रों, बंधु-बांधवों को आमंत्रित कर वितरित किया जाता है।
सूर्य देव को पहला अर्घ्यदान सूर्योपासना के इस महापर्व के तीसरे दिन यानी षष्ठी तिथि की शाम को डूबते सूर्य यानी अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। इस पूरे दिन यानी 24 घंटे व्रती निराजल उपवास रखते हैं। घर में विविध पकवान बनाए जाते हैं, जिसमें ठेकुआ खास होता है जो शुद्ध आटा से विशेष तरह के सांचे में ढाल कर बनाया जाता है। फिर ठेकुआ गागल (बड़ा नीबू) शरीफा, अनानास, कन्ना, सिंघाड़ा, नारियल, कच्ची हल्दी, मूली, सेब, संता, नाशपाती आदि धो कर स्वच्छ कर सूप (बांस या पीतल का) में सजाया जाता है। सूप में नारियल व जलता दीपक रखने के बाद व्रती नदी, सरोवर आदि में स्नान कर गीले वस्त्र में ही कमर तक जल में खड़े हो कर सूर्य नारायण के द्वादश नामों का उच्चारण करते हुए कच्चा दूध व जल से अर्घ्य देते हैं। अर्घ्यदान के बाद आरती उतारी जाती है। फिर वर्ती जन व परिवार जन समस्त पूजन सामग्री को दउरा में रख कर घर वापस आते हैं। आगे-आगे व्रती प्रज्ज्वलित दीपक ले कर चलते हैं और उनके साथ पूरा परिवार छठ गीत गाते हुए चलते हैं। ये दीपक अगले दिन तक जलता रहना चाहिए। घर पर पूरी रात भजन-कीर्तन का दौर चलता है।
अगले दिन यानी कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को सुबह उगते सूर्य को अर्घ्यदान के साथ चार दिवसीय छठ पूजा पूर्ण होती है।