हक में आया था फैसला
1978 में जब शाहबानो 62 साल की थी तब उनके पति ने उन्हें तलाक दे दिया था। पांच बच्चों की मां शाहबानो उस वक्त इस फैसले के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। लेकिन मुस्लिम फैमिली लॉ के अकॉर्डिंग पति पत्नी की रजामंदी के खिलाफ जाकर भी तीन तलाक का कदम उठा सकता है। तब शाहबानो ने अपने और अपने बच्चों के भरण पोषण का हक मांगने के लिए कानून के दरवाजे पर दस्तक दी। सात साल बाद उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो के हक में फैसला सुनाया। उस वक्त कोर्ट ने इस प्रकरण का निर्णय धारा 125 के अंतर्गत लिया था।
मुस्लिम समाज में मची थी खलबली
शाहबानो के हक में आए इस फैसले ने रूढ़िवादी मुस्लिमों के बीच खलबली मचा दी। उन्होंने इसे अपने खिलाफ माना और जमकर विरोध किया। उस वक्त मुस्लिमों के नेता एम जे अकबर और सैयद शाहबुद्दीन ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन कर फैसला वापस लेने की मांग की। संगठन के विरोध को देख राजीव गांधी सरकार ने उनकी मांगे मान ली और इस फैसले को धर्म निरपेक्षता का नाम लेकर लोगों के सामने लाया गया।
बन गया मुस्लिम महिला कानून उस वक्त राजीव गांधी की सरकार को बहुमत प्राप्त था इसलिए सुप्रीम न्याय के तत्कालिन डिसिजन को उलट कर मुस्लिम महिला कानून 1986 में आसानी से पारित कर दिया गया। इस कानून के अनुसार कोई मुस्लिम तलाकशुदा महिला यदि गुजारे की मांग करती है तो उसके पति को गुजारा देने का दायित्व इद्दत के समय तक ही बांध दिया गया है।