दरअसल यूरिया में 45 फीसदी नाइट्रोजन होता है, जबकि ढैंचा का पौधा खुद ही जमीन में नाइट्रोजन की कमी को दूर कर देता है। इसके साथ यहां खेतों में अन्य रसायिक खाद की जगह वर्मी कंपोस्ट और गोबर खाद का उपयोग किया जाता है। गत वर्ष की खेती कर रहे किसान जितेंद्र पाटीदार ने प्रति बीघा 2 लाख रुपए तक की आय की है। किसान जितेंद्र पाटीदार ने बताया कि पांच साल पहले ही खेती का काम शुरू किया है। शुरूआत जैविक खेती से ही की थी। पिछले साल हमने हल्दी की फसल में नाइट्रोजन की कमी को दूर करने के लिए यूरिया की जगह ढैंचा पौधा लगाकर प्रयोग किया था। जिसका असर यह हुआ कि रसायनिक खाद की लागत बची और पैदावार भी अधिक हुई। इसके साथ जमीन की उर्वरक क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है। गत वर्ष प्रति बीघा 1.5 से 2 लाख रुपए तक आय हुई थी। यहां होने वाली आर्गनिक हल्दी को पाउडर बचाकर खुद की बेच रहे है। ताकि घरों तक रसायक मुक्त मसाले पहुंच सके।
ऐसे होता है काम जितेंद्र ने इस बार जून में चार बीघा में राजापुरी, बाईगांव, प्रगति, चिन्ना सेलम, आंबा हल्दी, काली हल्दी और पितांबरी हल्दी वैरायटी लगाई है। 24 इंच की जगह छोड़ हल्दी के गाठं बोई गई। खाली जगह में ढैंचा पौधा लगाया। वर्तमान में हल्दी और ढैंचा का पौधा एक-एक फिट के हो चुके है। लेकिन अभी तक एक भी किट ने हल्दी की फसल को नुकसान नहीं पहुंचाया है। किट होते भी है तो ढैंचा के पौधा को खुराक बना रहे है। ढैंचा के पौध 3 फीट के होने पर उन्हें उखाड़कर उसी जगह पर डाल दिया जाएगा, जिससे यहां डलने वाली वर्मी कंपोस्ट के बाद केचुंए उन्हे आहार बनाएंगे। 8 माह तक यह फसल तैयार हो जाएगी।
यह हो रहा फायदा इस प्रयोग से जमीन में नाइट्रोजन की पूर्ति होती है। मुख्य फसल को किट नहीं खाते। जमीन में आर्गेनिक कार्बन की बढ़ोतरी होती है। कचुओं की संख्या बढ़ती है। खास बता यह कि फसल के साथ खतपतवार नहीं उगती। यूरिया में 45 फीसदी नाइट्रोजन होता है। जबकि ढैंचा को पौधा वायुमंडल से जरूरत के लिहाज से खुद की नाइट्रोजन बनाकर जमीन में छोड़ देता है।
वर्जन इस तरह की खेती की शुरूआत जितेंद्र पाटीदार ने है। अब ब्लाक में अन्य किसानों को इस तरह की खेती की ट्रेनिंग दी जा रही है। ढैंचा के साथ फसल लगाने पर बेहतर परिणाम आ रहे है।
-आरएनएस तोमर, वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी महू
-आरएनएस तोमर, वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी महू