वहीं एक तरफ राजस्थान के लोग हैं जो रेगिस्तान ( Rajasthan ) के इलाके में रहते हए भी करीब 400 वर्षों से वर्षा-जल संग्रहण कर रहे हैं। उनका पानी संग्रहण करने का यह तरीका जितना परंपरागत है उतना ही कारगर है। साल में एक अच्छी बारिश राजस्थान के लगभग हर घर को करीब पूरे वर्ष पेयजल की समस्या से निजात दिला जाती है। जहां भारत के कई इलाके के लोग नलकूप जैसी तकनीकों पर निर्भर होने लगे हैं वहीं राजस्थान में ‘टांका’ की परंपरागत तकनीक लोगों का वर्त्तमान के साथ भविष्य भी संवार रही है।
सन 1607 में पहली बार बनाया गया
ऐसा कहा जाता है वर्ष 1607 में ‘टांका’ को राजा सूर सिंह के बनवाया था। कहते हैं एक समय था जब गांव में किसान अपनी ज़मीन के बीच में एक तालाब के भर की जगह बचाकर रखते थे। इस जगह पर गहरा गड्ढा खोदकर किसान हर बरसात में उसमें पानी का संग्रहण कर खेती के लिए इस्तेमाल किया करते थे। जो उस तालाब की तरफ से गुज़रता था वह अगर एक मुट्ठी मिट्टी भी तालाब से निकालकर तालाब को गहरा कर रहा है तो वह पुण्य का काम कर रहा है।
यहां पीने के पानी का मुख्य स्रोत टांका है। सार्वजनिक टांके पंचायती भूमि पर बनाए जाते हैं। जो परिवार अपना टांका बनाने की सक्षम होते हैं वे व्यक्तिगत टांके बनाते हैं। व्यक्तिगत टांके घर के सामने आंगन या अहाते में बनाए जाते हैं। टांका एक भूमिगत पक्का कुण्ड है जो सामान्यतया गोल होता है। छत से वर्षाजल का पानी सीधा टांके में जाकर स्टोर हो जाता है। टांके को इस तरह तैयार किया जाता है कि वह पानी पीने लायक हो जाता है।
1- टांके के पानी में बदबू नहीं आती है।
2- कम खर्च में टांका तैयार हो जाता है।
3- साथ ही वर्षा का पूरा जल टांके में पहुंचता है।
4- खारे पानी को पीने की मजबूरी से निजात।
5- दूर से पानी लाने की समस्या से छुटकारा।