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ग्वालियर

रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने पर इन्हें मिली थी फाँसी, यह है 1857 के एक शहीद की कहानी 

क्रांतिकारियों की मदद करने के एवज में हंसते-हंसते फाँसी चढ़ गए बांठिया।

ग्वालियरJun 22, 2016 / 02:06 pm

rishi jaiswal

1857 revolution

1857 revolution


ग्वालियर। भारत को आजादी में कई लोगों ने अपनी कुरबानी दी, तब जाकर हिन्दुस्तान स्वतंत्र हुआ। ग्वालियर के ऐसे ही महानायक शहीद अमरचंद बांठिया ने भी अपना जीवन मातृभूमि के नाम समर्पित करते हुए हंसते-हंसते फाँसी के फंदे को अपने गले से लगा लिया। उनका बलिदान दिवस 22 जून (आज) को मनाया जाता है।


कौन थे शहीद बांठिया
राजपूतानी शौर्य भूमि राजस्थान के बीकानेर में शहीद अमरचंद बांठिया का जन्म 1793 में हुआ था। देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा शुरू से ही उनमें था। बाल्यकाल से ही अपने कार्यों से उन्होंने साबित कर दिया था कि वे देश की आन-बान और शान के लिए कुछ भी कर गुजरेंगे।
इतिहास में स्व. अमरचंद के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती, लेकिन कहा जाता है कि पिता के व्यावसायिक घाटे ने बांठिया परिवार को राजस्थान से ग्वालियर कूच करने के लिए मजबूर कर दिया और यह परिवार सराफा बाजार में आकर बस गया। तत्कालीन ग्वालियर रियासत के महाराज ने उन्हें उनकी कीर्ति से प्रभावित होकर राजकोष का कोषाध्यक्ष बना दिया।



सन 1857 के विद्रोह ने देश की चारों दिशाओं में चिंगारी पैदा कर दी थी। भारतीय सैनिकों के लिए आर्थिक संकट की घड़ी पैदा होने के कारण कोई तत्कालीन हल नजर नहीं आ रहा था। ऐसे समय शहीद बांठिया ने भामाशाह बनकर सैनिकों और क्रांतिकारियों के लिए पूरा राजकोष खोल दिया। यह धनराशि उन्होंने 8 जून 1858 को उपलब्ध कराई। 
उनकी मदद के बल पर वीरांगना लक्ष्मीबाई दुश्मनों के छक्के छु़ड़ाने में सफल रहीं, लेकिन अंग्रेज सरकार ने बांठिया के कृत्य को राजद्रोह माना और वीरांगना के शहीद होने के चार दिन बाद अमरचंद बांठिया को राजद्रोह के अपराध में सराफा में नीम के पेड़ पर फाँसी दे दी।



अब आधा ही बचा नीम का पेड़
सराफा बाजार में जिस नीम के पेड़ पर अमर शहीद को फांसी दी गई थी, उसे कुछ लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के चलते कुछ वर्षों पूर्व आधा कटवा दिया था, जिस वजह से ये पेड़ अब ठूँठ के रूप में आधा ही रह गया है।

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