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ग्वालियर

तानसेन समारोह 2019 : 95 वर्ष का हुआ तानसेन समारोह , 1924 में लिया था जन्म

tansen samaroh complete his 95 years of celebration in 2019 : भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन को श्रद्धांजलि व स्वरांजलि देने के लिए ग्वालियर में मनाए जाने वाले तानसेन समारोह ने 95 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं

ग्वालियरDec 16, 2019 / 01:45 pm

Gaurav Sen

tansen samaroh complete his 95 years of celebration in 2019

tansen samaroh complete his 95 years of celebration in 2019

तानसेन समारोह 2019 @ Patrika Gwalior

भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन को श्रद्धांजलि व स्वरांजलि देने के लिए ग्वालियर में मनाए जाने वाले तानसेन समारोह ने 95 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। इस समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म समभाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परंपराएं हैं। यह समारोह भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपराओं को सींचता आ रहा है।

तानसेन ने राग मल्हार में कोमल गांधार और निषाद के दोनों रूपों का प्रयोग किया
भारतीय संस्कृति में रची बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं। मुस्लिम समुदाय से बावस्ता देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण व राम तथा नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं तो साम्प्रदायिक सद्भाव की सरिता बह उठती है।

हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति दी है। शास्त्रीय गायक असगरी बेगम, पं.भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, सरोद वादक अमजद अली खां, संतूर वादक पं.शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं।

राष्ट्रीय तानसेन समारोह की यह भी खूबी रही है कि पहले राज्याश्रय एवं स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिए। यह समारोह तो सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्षी बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरू शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है, वहीं भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के सजीव दर्शन होते हैं।

संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं तो सुर में, और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभाएं संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं। लगभग 505 वर्ष पूर्व ग्वालियर जिले के बेहट गांव में मकरंद पाण्डे के घर जन्मे तन्ना गुरु स्वामी हरिदास के ममतामयी अनुशासन में हीरे सा परिस्कार पाकर धन्य हो गए। तानसेन की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए निवेदन करते थे। वैज्ञानिक शोधों में संगीत के प्रभाव से पशु, पक्षी, वनस्पति, फसलों आदि पर भी असर प्रमाणित हुआ है। तानसेन के समकालीन और अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खान खाना द्वारा रचित इस दोहे में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि विधिना यह जिय जानि के शेषहि दिये न कान, धरा मेरू सब डोलि हैं, सुनि तानसेन की तान।

तानसेन प्रथम संगीत मनीषी थे जिन्होंने राग मल्हार में कोमल गांधार और निषाद के दोनों रूपों का बखूबी प्रयोग किया। तानसेन को मियां की टोड़ी के आविष्कार का भी श्रेय है। कंठ संगीत में तानसेन अद्वितीय थे। उन्होंने जहां मियां की टोड़ी जैसे राग का आविष्कार किया, वहीं पुराने रागों में परिवर्तन कर कई नई-नई समधुर रागनियों को जन्म दिया। कुछ विद्वानों के अनुसार अकबर की कश्मीर यात्रा के समय 15वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में लाहौर में तानसेन ने अपनी इहलीला समाप्त की। कुछ विद्वानों का मत है उनका देहावसान 16वीं शताब्दी में आगरा में हुआ था।

1924 से शुरुआत
इस महान संगीतकार की स्मृति में सन् 1924 से प्रतिवर्ष ग्वालियर में संगीतज्ञों का मेला लगता है, जहां देश के चोटी के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर संगीत सम्राट तानसेन को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। संगीत सम्राट तानसेन की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए मध्यप्रदेश शासन द्वारा 1980 में राष्ट्रीय तानसेन सम्मान की स्थापना की गई। वर्ष 1985 तक इस सम्मान की राशि पांच हजार रुपए थी। वर्ष 1986 में इसे बढ़ाकर पचास हजार रुपए कर दिया गया और वर्ष 1990 से इस सम्मान के अन्तर्गत एक लाख रुपए तथा प्रशस्ति पट्टिका भेंट की जाती रही। अब सम्मान राशि बढ़ाकर दो लाख रुपए कर दी गई है।

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