ग्वालियर। भारतीय संस्कृति के विकास में आदि शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् 788 को हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। उनके जीवन के कई चमत्कारिक तथ्य हैं, मान्यता के अनुसार आदि शंकराचार्य शिव के अवतार थे। यह भी पढ़ें– जानिये कहा और कैसे शुरू हुई थी शिवलिंग की पूजा – (आदि शंकराचार्य से जागेश्वरधाम का क्या है संबंध) आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्दपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना – इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में आदि शंकराचार्य मोक्ष प्राप्त की। यह भी पढ़ें- सोमवार है भगवान शिव का दिन, ऐसे करें प्रसन्न असाधारण प्रतिभा के धनी आदि जगदगुरू शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन मनन में पारंगतता हासिल कर ली थी। इस धराधाम में आज से करीब ढाई हजार वर्ष पहले वैशाख शुक्ल पंचमी को उनका अवतरण हुआ था। विष्णु सहस्र नाम के शांकर भाष्य का श्लोक है:- श्रुतिस्मृति ममैताज्ञेयस्ते उल्लंध्यवर्तते। आज्ञाच्छेदी ममद्वेषी मद्भक्तोअ पिन वैष्णव।। इस श्लोक में भगवान् विष्णु की घोषणा है कि श्रुति-स्मृति मेरी आज्ञा है, इनका उल्लंघन करने वाला मेरा द्वेषी है, मेरा भक्त या वैष्णव नहीं। आज से 2516 वर्ष पूर्व भगवान् परशुराम की कुठार प्राप्त भूमि केरल के ग्राम कालड़ी में जन्मे शिवगुरू दम्पति के पुत्र शंकर को उनके कृत्यों के आधार पर ही श्रद्धालु लोक ने ‘शंकरः शंकरः साक्षात्’ अर्थात शंकराचार्य तो साक्षात् भगवान शंकर ही है घोषित किया। यह भी पढ़ें- परशुराम जयंति: ये हैं 10 रोचक बातें? हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य का योगदान आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत वेदांत संप्रदाय नौंवी शताब्दी में बेहद लोकप्रिय हुआ। उन्होंने प्राचीन भारतीय उपनिष्दों के सिद्धांतों को फिर से एक बार जीवित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने ईश्वर के स्वरूप को पूरी आत्मीयता और वास्तविकता के साथ स्वीकार किया। उनका मानना था कि वे लोग जो इस मायावी संसार को वास्तविकता मानते हैं और ईश्वर के स्वरूप को नकार देते हैं, वह पूरी तरह अज्ञानी होते हैं। सन्यासी सप्रदाय में सुधार लाने और संपूर्ण भारत को एकीकृत रखने के लिए उन्होंने भारत में चार मठों(गोवर्धन पीठ-ऋग्वेद, शारदा पीठ-यजुर्वेद, द्वारका पीठ- सामवेद, ज्योतिर्मठ-अर्थवेद) की स्थापना की।अवतारवाद की विचारधारा के अनुसार ईश्वर धरती पर अवतार केवल धर्म की रक्षा के लिए ही लेते हैं। वहीं जब हिन्दू धर्म का अस्तित्व खतरे में था तब उस समय शिव के अवतार के रूप में आदि शंकराचार्य का धरती पर आगमन हुआ। यह भी पढ़ें- एक्सपीरियंस के साथ ही बढ़ाएं अतिरिक्त आय क्यों प्रसिद्ध हैं चार धाम बद्रीनाथ, द्वारकापुरी, जगन्नाथ, रामेश्वरम चित्रा पुफलोरिया पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण देश के चार दिशाओं में चार धामों की स्थापना कर उनकी यात्रा को अनिवार्य बनाने के पीछे एक वृहत उद्देश्य है। पूरे देश को एक सूत्र में बांधने और एक दूसरे की कला-संस्कृति से परिचित कराने का यह प्रयास आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इन चार धामों की यात्रा के दौरान मार्ग में कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक पृष्ठभूमियों की जानकारी देश को जानने-समझने की बौद्धिक यात्रा भी बन सकती है। यह भी पढ़ें- जानिये क्या है “पर-काया प्रवेश” और किसने देखी यह घटना साक्षात जानिये उनकी प्रसिद्धि का राज… शिव अवतार आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए बद्रीनाथ, द्वारकापुरी, जगन्नाथपुरी व रामेश्वरम चार धामों में चार पीठ स्थापित किए। इन चार धामों में बद्रीनाथ उत्तर में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जब तक कोई तीर्थयात्री बद्रीनाथ की यात्रा पूरी नहीं करता तब तक उसकी तीर्थयात्रा अधूरी ही रहती है। बद्रीनाथ का पुजारी केरल का नम्बूदरीपाद होता है जो बद्रीनाथ का रावल कहलाता है। बताया जाता है कि शंकराचार्य ने धार्मिक एकता का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए उत्तर भारत के पंडितों को दक्षिण भारत स्थित मठों में भेजा और दक्षिण भारतीय पुजारियों को उत्तर भारत के मंदिरों में पूजा अर्चना की जिम्मेदारी सौंपी। कड़ाके की ठंड पड़ने के कारण बद्रीनाथ के कपाट नवंबर के तीसरे सप्ताह में बंद कर दिए जाते हैं। कपाट बंद करने से पहले होने वाली पूजा के समय वहां घी के जलते हुए दीप को छोड़ दिया जाता है। कहा जाता है कि छह माह बाद कपाट खुलने तक यह दीप जलता रहता है। बद्रीनाथ धाम का विस्तृत वर्णन हिमालय के दिव्य तीर्थ स्थल में किया गया है। सौराष्ट्र के पांच रत्नों में से पश्चिम में स्थित द्वारका एक धाम है। भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा व वृंदावन छोड़ यहां अपना धाम बसाया। द्वारका को मोक्षद्वार माना जाता है। कहते हैं यहां की भूमि के स्पर्श मात्र से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। द्वारकापुरी का माहात्म्य अवर्णनीय है।