(गयाधाम): 23 सितंबर से विश्वप्रसिद्ध गया धाम मेले की शुरूआत होने वाली है। प्रदेश के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी इस मेले का उद्धाटन करने वाले है। श्राद्ध पक्ष के दौरान पूरे देश के साथ ही विदेशी भी यहां आकर अपने पूर्वजों का पिंडदान करते है साथ ही उनकी मुक्ति के लिए प्रार्थना भी करते है। इसी के साथ अन्य दिन भी अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए यहां आकर पिंडदान और उनकी मुक्ति के लिए क्रियाक्रम किए जाते है। गया धाम को तीर्थों में सबसे प्रधान तीर्थ कहते है। गया धाम की अपनी अलग महिमा है। मान्यताओं के अनुसार…
क्या हैं मान्यताएं
मान्यताओं के अनुसार वैदिक काल में गयाक्षेत्र विशाल कीकट प्रदेश का महत्वपूर्ण हिस्सा था। इस क्षेत्र के की सीमाएं मौजूद आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और इधर अरावली पर्वतमालाआओं तक फैली थीं।इसमें गयासुर नामक विशालकाय दैत्य का साम्राज्य था। उसके आतंक से पृथ्वीवासी त्रस्त थे।इस असुर का विशालकाय शरीर गयाशीर्ष पहाड़ियों और पैर आंध्रप्रदेश की पहाड़ियों पर हुआ करता।जगकल्याणके लिए भगवान विष्णु ने अपने परम भक्त गयासुर को अपने हृदयस्थल पर यज्ञ के लिए तैयार किया। यज्ञ में शाक्यद्वीप से सूर्योपासक सात ब्राम्हण गरूड़ पर सवार होकर लाए
गये। ये मगी ब्राम्हण थे। यज्ञ समाप्ति पर ये सूर्योपासक शाक्यद्वीपिय ब्राह्मण इसी क्षेत्र में बस गये और सूर्योपासना शुरु कर दी। कालांतर में यही सूर्य छट व्रत के तौर पर बिहार में लोकप्रिय हो गया। गयासुर के हृदयस्थल पर विष्णुयज्ञ के दौरान सभी देवता उपस्थित हुए और दूध,मधु,घी आदि तत्वों के कुंड बनाए गये।
यज्ञ की अग्नि से जब गयासुर छटपटाने लगा तो विष्णु ने स्वर्ग में पत्थर बनी गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को उठाकर उसके ऊपर रखा और दाहिने पैर से दबा दिया। गयासुर के बाएं पैर को भी जो आंध्र प्रदेश की पहाड़ियों पर थे,विष्णु ने दबाया। विष्णुभक्त गयासुर ने भगवान से अपनी तीन इच्छाओं की पूर्ति के वर मुक्ति से पूर्व मांगे।
उसने यह मांगा कि यहां पधारे सभी देवी देवता अनंतकाल तक मेरे शरीर पर ही निवास करें। दूसरा यह कि जैसे आपके चरण से मुझे सांसारिक देहयोनि से मुक्ति मिल रही वैसे ही आपके चरणों पर कोई भी आकर पिंडतर्पण कर जन्म जन्मांतर से मुक्त हो जाए। और तीसरा यह कि जब तक संसार रहे तब तक हर दिन मेरे शरीर पर आपका एक पिंडदान और एक शवदाह अवश्य हो। विष्णु के वरदान के साथ ही विष्णुपद और गयाधाम में वे सारी मान्यताएं आज भी हूबहू कायम हैं।
पिंडतर्पण यदि संयोग वश किसी दिन करने कोई यात्री नहीं पहुंचता तो गयवाल पंडे किसी अनाम को समर्पित पिंडदान यहां अवश्य करते हैं। इसी तरह श्मशानघाट पर कोई शवदाह हरदिन अवश्य होता है। गयाधाम की पिंडवदियां वैदिक काल में आंध्र और उड़ीसा तक फैली थीं और इनकी संख्या 365 थीं जो कालांतर में 51,फिर21और और अब तीन तक समेट दी गई हैं।
गयाधाम आकर त्रेता में भगवान राम के हाथों में पूर्वजों और द्वापर में भगवान कृषण तथा पांडवों के द्वारा भी पिंडतर्पण के पौराणिक इतिहास यहां मिलते हैं। फल्गू में राम ने तर्पण किए। मंगलागौरी में भीम ने घुटने के बल पिंडदान किए। इन दोनों ही स्थानों को आज भी दशरथपिंड और भीमपिंडा के नाम से जाना जाता है।
गयाधाम को इसीलिए सभी तीर्थों में प्रधान कहा जाता है क्योंकि गयासुर को मिले वर के अनुसार यहां सभी देवी देवता निवास करते हैं। हिंदुओं की आस्था और विश्वास आज भी अक्षुण्ण तरीके से कैसे कायम है यह पितृपक्ष के दौरान यहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ देख समझा जा सकता है।