फरवरी माह में न केवल हिन्दुओं के महत्वपूर्ण व्रत-त्योहार हैं, बल्कि जैन धर्म के भी महत्वपूर्ण व्रत-त्योहार हैं। जैन धर्म का रोहिणी व्रत 1 फरवरी को किया जाएगा। यह 31 जनवरी से शुरू हो जाएगा। उसके बाद 28 फरवरी को फिर से यह व्रत किया जाएगा। तो फाल्गुन अष्टान्हिका पर्व 26 फरवरी को मनाया जाएगा। पत्रिका.कॉम इस लेख में आपको बता रहा है, इन व्रत त्योहारों का महत्व और पूजा विधि, जानिए कैसे मनाए जाते हैं ये पर्व…
रोहिणी व्रत का महत्व
जैन समुदाय में रोहिणी व्रत को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जैन समुदाय में रोहिणी व्रत 27 नक्षत्रों में शामिल रोहिणी नक्षत्र के दिन किया जाता है। इसीलिए इस व्रत को रोहिणी व्रत कहा जाता है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से आत्मा के विकार दूर होते हैं और कर्म बंधन से मुक्ति मिलती है। जब उदियातिथि अर्थात सूर्योदय के बाद रोहिणी नक्षत्र प्रबल होता है, उस दिन रोहिणी व्रत किया जाता है। ये व्रत विशेष रूप से जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा ही किया जाता है। यह व्रत एक त्योहार की तरह माना गया है। इस दिन भगवान वासुपूज्य की पूजा की जाती है। इस व्रत को नियमित 3, 5 या 7 वर्षों तक करने के बाद ही इसका उद्यापन किया जा सकता है।
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महिलाएं करती हैं ये व्रत
जैन परिवारों की महिलाओं के लिए इस व्रत का पालन करना अति आवश्यक माना गया है। इस दिन महिलाएं प्रात:काल जल्दी उठकर स्नान कर पवित्र होकर पूजा करती हैं। इस दिन पूरे विधि-विधान से पूजा की जाती है। पूजा के लिए वासुपूज्य भगवान की पांचरत्न, ताम्र या स्वर्ण प्रतिमा की स्थापना की जाती है। वैसे पुरुष भी ये व्रत कर सकते हैं। इस पूजा में जैन धर्म के लोग भगवान वासुपूज्य की पूजा करते हैं। महिलाएं अपने पति की लंबी आयु एवं स्वास्थ्य के लिए इस व्रत को करती हैं। इस दिन गरीबों को दान देने का भी विशेष महत्व माना गया है।
यहां पढ़ें रोहिणी व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में चंपापुरी नामक नगर में राजा माधवा अपनी रानी लक्ष्मीपति के साथ राज करते थे। उनके 7 पुत्र एवं 1 रोहिणी नाम की पुत्री थी। एक बार राजा ने निमित्तज्ञानी से पूछा कि मेरी पुत्री का वर कौन होगा? तो उन्होंने कहा कि हस्तिनापुर के राजकुमार अशोक के साथ तेरी पुत्री का विवाह होगा। यह सुनकर राजा ने स्वयंवर का आयोजन किया। इसमें कन्या रोहिणी ने राजकुमार अशोक के गले में वरमाला डाली और उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ।
एक समय हस्तिनापुर नगर के वन में श्री चारण मुनिराज आए। राजा अपने प्रियजनों के साथ उनके दर्शन के लिए गया और प्रणाम करके धर्मोपदेश को ग्रहण किया। इसके पश्चात राजा ने मुनिराज से पूछा कि मेरी रानी इतनी शांतचित्त क्यों है?
तब गुरुवर ने कहा कि इसी नगर में वस्तुपाल नाम का राजा था और उसका धनमित्र नामक एक मित्र था। उस धनमित्र की दुर्गंधा कन्या उत्पन्न हुई। धनमित्र को हमेशा चिंता रहती थी कि इस कन्या से कौन विवाह करेगा? धनमित्र ने धन का लोभ देकर अपने मित्र के पुत्र श्रीषेण से उसका विवाह कर दिया, लेकिन अत्यंत दुर्गंध से पीडि़त होकर वह एक ही मास में उसे छोड़कर कहीं चला गया।
इसी समय अमृतसेन मुनिराज विहार करते हुए नगर में आए, तो धनमित्र अपनी पुत्री दुर्गंधा के साथ वंदना करने गया और मुनिराज से पुत्री के भविष्य के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि गिरनार पर्वत के निकट एक नगर में राजा भूपाल राज्य करते थे। उनकी सिंधुमती नाम की रानी थी। एक दिन राजा, रानी सहित वनक्रीड़ा के लिए चले, सो मार्ग में मुनिराज को देखकर राजा ने रानी से घर जाकर मुनि के लिए आहार व्यवस्था करने को कहा। राजा की आज्ञा से रानी चली तो गई, परंतु क्रोधित होकर उसने मुनिराज को कड़वी तुम्बी का आहार दिया। इससे मुनिराज को अत्यंत वेदना हुई और तत्काल उन्होंने प्राण त्याग दिए।
जब राजा को इस विषय में पता चला, तो उन्होंने रानी को नगर में बाहर निकाल दिया और इस पाप से रानी के शरीर में कोढ़ उत्पन्न हो गया। अत्यधिक वेदना और दु:ख को भोगते हुए वो रौद्र भावों से मरकर नर्क में गई। वहां अनंत दु:ख भोगने के बाद पशु योनि में उत्पन्न और फिर तेरे घर दुर्गंधा कन्या हुई।
यह पूर्ण वृत्तांत सुनकर धनमित्र ने पूछा- कोई व्रत-विधानादि धर्म कार्य बताइए जिससे कि यह पातक दूर हो। तब स्वामी ने कहा- सम्यग्दर्शन सहित रोहिणी व्रत पालन करो अर्थात प्रति मास में रोहिणी नामक नक्षत्र जिस दिन आए, उस दिन चारों प्रकार के आहार का त्याग करें और श्री जिन चैत्यालय में जाकर धर्मध्यान सहित 16 प्रहर व्यतीत करें अर्थात सामायिक, स्वाध्याय, धर्मचर्चा, पूजा, अभिषेक आदि में समय बिताए और स्वशक्ति दान करें। इस प्रकार यह व्रत 5 वर्ष और 5 मास तक करें।
दुर्गंधा ने श्रद्धापूर्वक व्रत धारण किया और आयु के अंत में संन्यास सहित मरण कर प्रथम स्वर्ग में देवी हुई। वहां से आकर तेरी परमप्रिया रानी हुई। इसके बाद राजा अशोक ने अपने भविष्य के बारे में पूछा, तो स्वामी बोले- भील होते हुए तूने मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया था, सो तू मरकर नरक गया और फिर अनेक कुयोनियों में भ्रमण करता हुआ एक वणिक के घर जन्म लिया, सो अत्यंत घृणित शरीर पाया, तब तूने मुनिराज के उपदेश से रोहिणी व्रत किया। फलस्वरूप स्वर्गों में उत्पन्न होते हुए यहां अशोक नामक राजा हुआ। इस प्रकार राजा अशोक और रानी रोहिणी, रोहिणी व्रत के प्रभाव से स्वर्गादि सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त हुए।
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रोहिणी व्रत पूजा विधि
इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाना चाहिए और घर की साफ सफाई भी अच्छे से कर लेनी चाहिए। गंगाजल युक्त पानी से स्नान-ध्यान करें और फिर व्रत का संकल्प लें। आचमन कर अपने आप को शुद्ध करें। पहले सूर्य भगवान को जल का अघ्र्य दें। इस व्रत के दौरान जैन धर्म में रात का भोजन करने की मनाही होती है। फलाहार सूर्यास्त से पूर्व कर लेना चाहिए।
यहां जानें क्या है अष्टान्हिका पर्व
अष्टानिका पर्व का जैन समाज में विशेष महत्व हैं। जैन धर्म के अनुसार चारों प्रकार के इंद्र सहित देवों के समूह नन्दीश्वर द्वीप में प्रति-वर्ष आषाढ़-कार्तिक और फाल्गुन मास में पूजा करने आते हैं। नन्दीश्वर द्वीपस्थ जिनालयों की यात्रा में बहुत ही भक्तिभाव से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी देव दक्षिण दिशा में, व्यंतर देव पश्चिमी दिशा और ज्योतिष देव उत्तर दिशा में विराजमान जिन मंदिर में पूजा करते हैं। जिनेन्द्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से आठ दिन तक अखंड रूप से पूजा-अर्चना की जाती है। क्योंकि मनुष्य अढ़ाई-द्वीप के बाहर आगे नंदीश्वर द्वीप तक नहीं जा सकते। इसलिए सभी अपने-अपने मंदिरों में ही नंदीश्वर द्वीप की रचना करके पूजा करते हैं। इस साल यह पर्व फरवरी माह में 26 फरवरी को मनाया जाएगा।