बेसिक शिक्षा अधिकारी समेत अन्य अधिकारीयों का प्राइमरी स्कूल के नाम पर इस्लाम प्रेम महंगा पड़ सकता है। जिले के तीन-चार प्राइमरी स्कूलों को इस्लामिया स्कूल का दर्जा दिए जाने की जानकारी होते ही बेसिक शिक्षा अधिकारी को यह साफ़ कर दिया था कि यह खेल तुरंत बंद हो जाना चाहिए। क्योंकि धर्म और मजहब के नाम पर सरकारी शिक्षा का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है। यदि सरकारी शिक्षा पर इस्लामिया का ठप्पा लगाया जाता है तो सिख, बौद्ध और जैन भी इसी रास्ते पर जाने को तैयार हो सकते हैं। सांसद की इस नाराजगी पर अधिकारियों ने हां में हां भी मिला दी थी। पर इस इतवार को शमसाबाद का इस्लामिया स्कूल पूरे दिन खुला रहा। यह पढ़ाई पिछले जुमे को छुट्टी की ऐवज में रखी गयी।
शमसाबाद का इस्लामिया स्कूल स्वतंत्रता से पहले यानी 1917 से चल रहा है। स्कूल के पास शुरुआत से अब तक के सारे रिकार्ड भी सुरक्षित हैं। इस स्कूल में 150 बच्चे पंजीकृत हैं। सभी बच्चे मुस्लिम हैं। दूसरे समाज के बच्चे यहां एडमीशन लेने के लिए आते ही नहीं। हालांकि प्रधानाध्यापक अमित गर्ग ने बताया कि उन्हें और सहायक अध्यापिका अर्चना देवी को भी उर्दू की जानकारी नहीं है। शिक्षा मित्र गाज़िया सुल्ताना सभी कक्षाओं में बच्चों को उर्दू की तालीम देती हैं। प्रधानाध्यापक अमित गर्ग ने बताया कि वह 2015 से इस विद्यालय में हैं। यहां शुक्रवार को स्कूल बंद रहता है और इतवार को खुला रहता है। उपस्थिति रजिस्टर में भी शुक्रवार के दिन लाल रंग के पेन से फ्राई डे लिख कर छुट्टी दिखाई जाती है। सियासी और तालीमी मामलों में दखल रखने वाले मौलाना एजाज़ नूरी ने कहा कि यह स्कूल इस्लामियां हैं ही नहीं इसलिए इन स्कूलों को इस्लामिया का नाम नहीं दिया जाना चाहिए। सरकार के पैसे से जो स्कूल चल रहा है वह इस्लामिया हो ही नहीं सकता। जो स्कूल सरकारी पैसे से चल रहा है वह किसी खास मजहब के लिए नहीं हो सकता।