इटावा

“यहां पूरा घर रहने के लिए है, दिल्ली में तो एक कमरे में ही गुजारा करना पड़ता था, अब यहीं काम करूंगा, वापस नहीं जाऊंगा”

“अब घर आ गए हैं, तो यहीं कामकाज करेंगे। इसी से हम यहां भी तरक्की के रास्ते पर चलेंगे।”

इटावाMay 20, 2020 / 07:28 am

Abhishek Gupta

Labours

इटावा. कोरोना संक्रमण के बाद हुए लाॅकडाउन से देश के विभिन्न हिस्सों से मजदूरों का जत्था अपने-अपने घरों को लौटना शुरू हो गया है। इन्हीं में से सैकड़ो मजदूर उत्तर प्रदेश के इटावा भी आ पहुंचे हैं, जो अब अपने-अपने मूल काम को करने में जुट गये हैं। योगेन्द्र दिल्ली में एक कपड़े की कम्पनी में काम करते थे। कम्पनी बन्द हुई तो घर आ गए। गांव पहुंचे तो गांव वालों ने हाथोहाथ लिया और मनरेगा में काम भी मिल गया। अब वह अपने गांव बम्होरा में ही मजदूरी कर रहे हैं और अपने परिवार का पालन पोषण करने की स्थिति में हैं। योगेन्द्र कहते है कि दिल्ली की नौकरी में बंदिश बहुत थी। काम ज्यादा था और छुट्टी भी नहीं मिलती थी । कभी कभी तो त्योहार पर भी घर नहीं आ पाते थे। तब बड़ा कष्ट होता था कि बच्चे गांव में और वे दिल्ली में। अब आ गए हैं, तो वापस जाने का मन नहीं है। अब तो गांव में ही काम करके अपने बच्चों के साथ ही रहेंगे। यहां पूरा घर रहने के लिए है। दिल्ली में तो एक कमरे में ही गुजारा करना पड़ता था, लेकिन अब काफी राहत है।
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यूपी के बाहर घर जैसी सुुविधा नहीं-

इसी तरह से गांव राहिन में भी कई प्रवासी मजदूर आए हैं, जो अब मनरेगा में मजदूरी करके खुश हैं। यहां के सतेन्द्र गुजरात के बडोदरा में प्लास्टर से मूर्तियां बनाने वाले कारखाने में काम करते थे। कोरोना संक्रमण और लाॅकडाउन के चलते कारखाना बन्द हो गया ओर सतेन्द्र को वापस अपने गांव आना पड़ा। यहां उन्हें मनरेगा में मजदूरी का काम मिल गया। इन दिनों गांव में चकरोड बनाने का काम चल रहा है और अन्य श्रमिकों के साथ सतेन्द्र भी इस काम में जुटे हैं। सतेन्द्र ने बताया कि गुजरात में कड़ा परिश्रम करना पड़ता था और उस हिसाब से पैसा कम मिलता था। रहने खाने में घर जैसी बात बाहर नहीं मिलती। अब घर आ गए हैं, तो यहीं कामकाज करेंगे। इसी से हम यहां भी तरक्की के रास्ते पर चलेंगे।
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परिवार के साथ रहने का सुख है-

गांव बम्होरा के रहने वाले स्वदेश फरीदाबाद में एक ऐसी कम्पनी में काम करते थे जहां वाहनों में लगने वाले हार्न बनाए जाते हैं। यहां वे हैल्परी का काम करते थे, जिसमें उन्हे महीने में साढे 6 हजार रूपए मिलते थे। लाॅकडाउन में कम्पनी बन्द होने पर वे अपने गांव आ गए। स्वदेश का कहना है कि वहां भी कष्ट भरा जीवन था। आमदनी कम होने के कारण परिवार को भी साथ नहीं रख पाते थे। पत्नी व दोनों बच्चे गांव में ही रहते थे। अब वे अपने गांव आ गए हैं, तो उन्हें मनरेगा मेें काम मिल गया। इसमें 201 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिल रही है। परिवार के साथ रहने का सुख भी है। स्वदेश का कहना है कि अब वे गांव में ही रहकर अपने परिवार का पालन पोषण करेंगे।

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