उन्होने बताया कि अपनी जान बचाये जाने का पाठ ह्यूम कभी नही भूले । ह्यूम ना बचते अगर उनके हिंदुस्तानी साथियो ने उनको चमरौधा जूता ना पहनाया होता,सिर पर पगडी ना बांधी होती और महिला वेश धारण कर सुरक्षित स्थान पर ना पहुंचाया होता। ह्यूम ने इटावा से भाग कर आगरा के लाल किले मे शरण ली थी।
चंबल अकाईब के मुख्य संरक्षक किशन महरौत्रा 1912 मे इटावा में रहने वाले शिमला के संत डा.श्रीराम महरौत्रा लिखित पुस्तक ‘लक्षणा’ का हवाला देते हुए चंबल अकाईब के मुख्य संरक्षक किशन महरौत्रा बताते है कि 1856 से 1867 तक इटावा के कलेक्टर रहे ह्यूम कुशल लोकप्रिय सुधारवादी शासक के रूप मे ख्याति पाई । 1857 मे गदर हो गया । लगभग पूरे उत्तर भारत से अंग्रेजी शासन लुप्त हो गया। आज के वक्त मे यह विश्वास करने वाली बात नही मानी जायेगी कि एक भी अंग्रेज अफसर उत्तर भारत के किसी भी जिले मे नही बचा । सब अपनी अपनी जान बचा भाग गये या फिर छुप गये । लखनऊ की रेजीडेंसी या आगरा किले मे छुप गये । अपने परिवार के साथ लंबे समय तक आगरा मे रहने के बाद 1858 के शुरूआत मे हयूम भारतीय सहयोगियो की मदद से इटावा वापस आकर फिर से अपना काम काज शुरू किया ।
चंबल फाउंडेशन ने अध्यक्ष शाह आलम ने इतिहास के पन्नों को पलटते हुये कहा कि इटावा मे 4 फरवरी 1856 को इटावा के कलक्टर के रूप मे ए.ओ.हयूम की तैनाती अग्रेज सरकार की ओर से की गई। यह कलक्टर के रूप मे पहली तैनाती थी। हयूम इटावा मे 1867 तक तैनात रहे । आते ही हयूम ने अपनी कार्यक्षमता का परिचय देना शुरू कर दिया । 16 जून 1856 को हयूम ने इटावा के लोगो की जनस्वास्थ्य सुविधाओ को मददेनजर रखते हुये मुख्यालय पर एक सरकारी अस्पताल का निर्माण कराया तथा स्थानीय लोगो की मदद से हयूम ने खुद के अंश से 32 स्कूलो को निर्माण कराया जिसमे 5683 बालक बालिका अध्ययनरत रहे ।
Business Hub in Etawah हयूम ने इटावा को एक बडा व्यापारिक केंद्र बनाने का निर्णय लेते हुये अपने ही नाम के उपनाम हयूम से हयूमगंज की स्थापना करके हॉट बाजार खुलवाया जो आज बदलते समय मे होमगंज के रूप मे बडा व्यापारिक केंद्र बन गया है ।
रक्षक सेना के गठन की भी बडी दिलचस्प कहानी इटावा में स्थानीय रक्षक सेना के गठन की भी बडी दिलचस्प कहानी है। 1856 में ए.ओ.हयूम इटावा के कलक्टर बन कर आये। कुछ समय तक यहां पर शांति रही। डलहौजी की व्ययगत संधि के कारण देशी राज्यों में अपने अधिकार हनन को लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के विरद्ध आक्रोश व्याप्त हो चुका था। चर्बी लगे कारतूसों क कारण 6 मई 1857 में मेरठ से सैनिक विद्रोह भडक था।
East India Company in Etawah उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली से लगे हुये अन्य क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी ने अत्यधिक संवेदनशील घोषित कर दिये थे। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भारतीयों की संख्या भी बडी मात्रा में थी। हयूम ने इटावा की सुरक्षा व्यवस्था को घ्यान में रख कर शहर की सडकों पर गश्त तेज कर दी थी। 16 मई 1857 की आधी रात को सात हथियारबंद सिपाही इटावा के सडक पर शहर कोतवाल ने पकडे । ये मेरठ के पठान विद्रोही थे और अपने गांव फतेहपुर लौट रहे थे। कलक्टर हयूम को सूचना दी गई और उन्हें कमांडिंग अफसर कार्नफील्ड पर गोली चला दी लेकिन वी बच गया। विद्रोहियों ने कार्नफील्ड पर गोली चला दी लेकिन वह बच गया। इस पर क्रोधित होकर उसने चार को गोली से उडा दिया परन्तु तीन विद्रोही भाग निकले।
इटावा में 1857 के विद्रोह की स्थिति
इटावा में 1857 के विद्रोह की स्थिति भिन्न थी । इटावा के राजपूत विद्रोहियों का खुलकर साथ नहीं दे पा रहे थे,19 मई 1857 को इटावा आगरा रोड पर जसवंतनगर के बलैया मंदिर के निकट बाहर से आ रहे कुछ सशस्त्र विद्रोहियों और गश्ती पुलिस के मध्य मुठभेड हुई। विद्राहियों ने मंदिर के अंदर धुस कर मोर्चा लगाया । कलक्टर हयूम और ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डेनियल ने मंदिर का घेरा डाल दिया । गोलीबारी में डेनियल मारा गया और हयूम वापस इटावा लौट आये जब कि पुलिस घेरा डाले रही लेकिन रात को आई भीषण आंधी का लाभ उठा कर विद्रोही भाग गये।