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UP Assembly Elections 2022: राजशाही गई, अब लोकशाही में नहीं रही पूछ परख

UP Assembly Elections 2022: आजादी के बाद राजशाही चली गई तो कई राजघरानों ने लोकशाही की ओर रुख कर लिया। ग्राम प्रधान से लेकर मुख्यमंत्री से लगायत प्रधानमंत्री तक के प्रतिष्ठित पद को सुशोभित किया। कई राजघराने इस बार के यूपी विधानसभा चुनाव में भी मैदान में हैं, पर कई राजघराने ऐसे हैं जिन्हें अब कोई पूछने वाला नहीं। तो जानते हैं यूपी के राजघरानों का सियासी सफरनामा…

Feb 21, 2022 / 04:53 pm

Ajay Chaturvedi

पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह

अजय चतुर्वेदी/ पत्रिका न्यूज नेटवर्क

वाराणसी. यूपी राजघरानों का गढ़ है। हर जिले में यहां राजा और रानियां हैं। राजकुमार और कुंवर साहब हैं। लेकिन नहीं है तो राजशाही। राजतंत्र से लोकतंत्र के इस सफर में तमाम राजघराने विधान सभा चुनाव में मैदान में हैं। लेकिन तमाम राजघराने ऐसे भी हैं जिनकी इस चुनाव में कोई पूछ परख नहीं है। किसी के पास चुनाव लडऩे के लिए धन नहीं है तो किसी की राजनीति में रुचि नहीं है। आइए जानते हैं कुछ राजघरानों की कहानी-
दिलीपपुर राजघराने के हालात नाजुक

प्रतापगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित दिलीपपुर राजघराने में आपसी लड़ाई है। राजघराने की तरह संपत्ति को लेकर परिवार उलझा हुआ है। ऐसे में किले की सियासत केवल ब्लॉक प्रमुख, बीडीसी एवं प्रधान तक ही सिमट कर रह गई है। कभी राजा अमरपाल सिंह विधान परिषद सदस्य बने थे। उनके बाद सियासत से परिवार के लोग दूर रहे। तीन बार राजा सूरज सिंह व रानी सुषमा सिंह दिलीपपुर की प्रधान रहीं। दिलीपपुर राजघराने की राजकुमारी भावना सिंह विरासत में मिली सियासत को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं लेकिन पारिवारिक हालात उन्हें इसकी इजाजत नहीं दे रही।
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अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र का किला
राजनीति में असफल रहे अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र

अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र ने 2009 में बसपा के टिकट पर फैजाबाद संसदीय सीट से चुनाव लड़ा। लेकिन, वे कांग्रेस के निर्मल खत्री से हार गए, जिसके बाद राजनीति से दूरी बना ली।
मांडा राजघराना में वीपी के बाद कोई आगे नहीं आया
राजा मांडा के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भूदान आंदोलन में हजारों बीघा जमीन दान देकर इसको साबित भी किया था कि सामाजिक सरोकार से भी दिल से जुड़े थे। देश के प्रधानमंत्री पद का दायित्व तक संभाला। लेकिन कभी राजनीतिक गतिविधियों की केंद्र रही मांडा रियासत से अब कोई राजनीति में नहीं हैं।
300 साल का पुराना नवाब परिवार का इतिहास

लखनऊ के नवाबों का इतिहास भी 300 से अधिक वर्षों से पुराना है। अंग्रेजी हुकूमत से पहले ये नवाब अवध के राजा हुआ करते थे। अंग्रेजों की हुकूमत आने के बाद भी सत्ता उन्हीं के पास रही। उन्होंने अंग्रेजों के अधीन रहना स्वीकारा था। लेकिन आजादी के बाद से ये धीरे – धीरे सत्ता और राजनीति से दूर होते गए। पिछले छह दशकों में केवल एक ही परिवार सक्रिय राजनीति में भागीदारी लेता है वह है, बुक्कल नवाब का परिवार। लखनऊ की राजनीति में पहला चुनाव बुक्कल नवाब नवाब के पिता नवाब मिर्जा मोहम्मद उर्फ दारा नवाब ने लड़ा था। 60 के दशक के करीब उन्होंने सैयद अली के खिलाफ चुनाव लड़ा था। उसके बाद बुक्कल नवाब नवाब पिछले 43 साल से राजनीति में सक्रिय हैं। उनके बेटे बुक्कल नवाब नवाब और अब पोते फैसल नवाब भी सक्रिय राजनीति में हैं। फैसल नवाब वर्तमान में नगर निगम के पार्षद हैं।

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