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जानिए जौनपुर का अद्भुत अतीत, जब जौनपुर उत्तर प्रदेश का था नंबर एक जिला

इतिहास का एक वो भी दौर था जब जौनपुर की सेना से पूरी दिल्ली सल्तनत थरथराती थी । यही नहीं, जौनपुर उत्तर प्रदेश का वह जिला है जो भगवान परशुराम की जन्मस्थली के तौर पर भी जाना जाता है । आज आप जौनपुर के पराक्रम से परिपूर्ण इतिहास को जान कर गर्व करेंगे और उत्तर प्रदेश में मौजूद इस जौनपुर जिले को हमेशा याद रखेंगे |

Jan 17, 2023 / 09:32 pm

Adarsh Tiwari

Shadi Bridge Jaunpur, Uttar Pradesh

शर्की वंश में जौनपुर

1359 ई. का वह साल था, उस समय दिल्ली पर तुगलकों का हुकूमत चलती थी। तुगलक वंश का तात्कालिक शासक फीरोजशाह तुगलक था। इसी फीरोजशाह ने 1359 ई. में एक शहर को स्थापित किया था। उस शहर का नामकरण उसने अपने भाई जौना खान के तर्ज पर किया। जिसे आज जौनपुर के नाम से जाना जाता है।

1359 ई. में जौनपुर के स्थापना के साथ ही इस शहर के स्वर्णिम भविष्य की नींव भी पड़ गई थी। उसी समय से जौनपुर को दिल्ली सल्तनत की पूर्वी राजधानी कहा जाने लगा था। जौनपुर सम्पूर्ण साम्राज्य का केंद्र बन चुका था। मगर ये तो अभी आरंभ मात्र था। जौनपुर की शान बड़ी ऊँची जाने वाली थी। फिलहाल के लिए जौनपुर पर तुगलकों का ही आधिपत्य रहा।

1388 ई. तक शहर पर प्रत्यक्ष शासन करने वाला तुगलक शासक फीरोजशाह तुगलक ने बड़ी बर्बरता दिखाई। वह एक कट्टर धर्मांध शासक था। इसी धर्मांधता में उसने जौनपुर की अटाला देवी मंदिर को ध्वस्त करा दिया था। बाद में फीरोजशाह ने ही अटाला देवी मंदिर के स्थान पर अटाला मस्जिद की नींव रख दी थी।

हालांकि, जल्द ही जौनपुर के ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन का समय आ गया। 1388 ई. में तुगलकों ने अपने एक गुलाम मलिक सरवर को जौनपुर का प्रशासनिक जिम्मा सौंप दिया। वजह दिल्ली का दूर होना था।
दरअसल, तुगलकों के लिए जौनपुर पर प्रत्यक्ष शासन करना कठिन हो रहा था। और इसी का लाभ मलिक सरवर को मिल गया। 1388 ई. में मलिक सरवर का पद पाना जौनपुर के इतिहास परिवर्तक की रूपरेखा थी। कहा जाता है की मलिक सरवर के पूर्वज आर्य समाज से ताल्लुकात रखते थे। और जबरन उनको इस्लाम कबूल करवाया गया था।
हालांकि इस सम्बंध में कोई. पुख्ता सबूत नहीं है। बहरहाल, मलिक सरवर ने 1388 ई. से 1393 ई. तक दिल्ली सल्तनत के अधीन रह कर काम किया। अब पूरे पांच साल तक सत्ता का सुसंचालन कर मलिक सरवर ने अनुभव का खजाना जुटा लिया था। उसकी राजनीतिक व प्रशासनिक सूझ-बूझ बड़ी गहरी हो चली थी।
अब मलिक ने स्वतंत्र शासक बनने का ख्वाब बुनना शुरू कर दिया था। उसका यह ख्वाब मुकम्मल भी हो गया। दरअसल, 1390 ई. का वह दशक था जब दिल्ली सल्तनत बाहरी आक्रमण से कमजोर पड़ गई थी। इस मौका परस्ती ने मलिक सरवर को स्वतंत्र शासक बना दिया। मलिक ने शर्की वंश की स्थापना की और जौनपुर को उसकी राजधानी बनायी।
अब जौनपुर से शर्की साम्राज्य का विस्तार शुरू हुआ। धीरे-धीरे शर्की साम्राज्य पूर्व में बंगाल और उत्तर में नेपाल तक फैल गया। हालांकि यह तो अभी आरंभ था। मलिक सरवर ने तो मात्र पृष्ठभूमि तैयार किया था। जौनपुर का सत्ता के शिखर तक पहुंचना अभी शेष था। इसके बाद मलिक सरवर के वंशज के तौर पर मुबारक शाह ने सत्ता सम्हाल लिया।
1399-1401 ई. तक मुबारक शाह का अल्पाधिक शासन काल रहा था। 1401 ई. में शर्की साम्राज्य का शासन इब्राहिमशाह के पुष्ट हाथों में चला गया। इब्राहिमशाह ने जौनपुर का खूब परचम लहराया। कहा जाता है कि इब्राहिमशाह ने दिल्ली सल्तनत पर तीन बार चढ़ाई किया था। जौनपुर की सेना ने दिल्ली सल्तनत की नींव हिला दी थी।

उस जमाने में शक्ति व समृद्धि की प्रतीक कही जाने वाली दिल्ली सल्तनत डरी हुई थी। जौनपुर की सेना के तीन भयावह आक्रमण के बाद पूरी दिल्ली सल्तनत सत्ता विहीन होने के डर से थरथर कांपती थी। कुछ इतिहास विदो का यह भी मानना है कि शर्की साम्राज्य के समय जौनपुर की सेना सम्पूर्ण भारत की सर्वाधिक शक्तिशाली व सबसे विशाल सेना थी।
अलबत्ता, जौनपुर का दिल्ली सल्तनत पर पूर्ण आधिपत्य तो नहीं हो सका था। लेकिन जौनपुर की धरती पर जन्मे वीरों की सेना ने हिन्दुस्तान के कोने-कोने में अपनी वीरता, शौर्यता व युद्ध कौशल का सबूत दे दिया था। जौनपुर का यह रुतबा आगे के कई वर्षों तक अविरत जारी रहा। लेकिन एक ना एक दिन विश्व की हर सत्ता का अंत होना निश्चित है।
यदि सत्ता स्थापना हिंसा के पद चिन्हों पर चलकर किया गया हो तो उसका अंत होना और भी अडिग हो जाता है। 1484 ई. में जौनपुर से शर्की वंश का अंत भी हो गया। उसके बाद से आजादी तक जौनपुर किसी ना किसी के अधीन रहा है। आजादी के उपरांत जौनपुर उत्तर प्रदेश के एक जिले के रूप में जाना जाता है।

जौनपुर की शिक्षा और संस्कृति

हालांकि हमें यह कतई स्वीकार्य नहीं करना चाहिए की जौनपुर ने मात्र सैन्य शौर्य व आक्रमण-प्रति आक्रमण को ही जिया है। जौनपुर की सर्वाधिक महानता तो शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित होना था। एक जमाने में जौनपुर उर्दू शिक्षा व सूफी वाद का केंद्र बना हुआ था। शेर शाह सूरी तक कि शिक्षा जौनपुर में सम्पन्न हुई थी। शर्कियो ने संस्कृत भाषा को भी बढ़ावा दिया था। संस्कृत की शिक्षा भी जौनपुर में खूब फूली फली थी।
ऐसा कहा जाता है कि, मलिक मुहम्मद जायसी भी जौनपुर की शिक्षण क्षेत्र की तरक्की से बड़े मुग्ध थे। पद्मावत के रचनाकार मलिक मुहम्मद जायसी ने कई वर्षों तक जौनपुर से प्रभावित रह कर जौनपुर में निवास किया था। शिक्षा व सैन्य बल के साथ ही जौनपुर की सांस्कृतिक विरासत भी अहम है। फीरोजशह तुगलक ने तो अपनी धर्मांधता और कट्टरपंथ में अटाला देवी का मंदिर ध्वस्त करवा दिया था।
उसकी जगह पर अटाला मस्जिद का नींव रख दिया। लेकिन शर्की शासकों ने इस मामले में धार्मिक सौहार्द दिखाई। 1408 ई. में बनकर तैयार हुई अटाला मस्जिद की कला हिंदी कला के अनुरूप है। इसका श्रेय शर्की शासक इब्राहिम शाह को है। हिन्दू-मुसलमान के एकता की कहानी कह रही अटाला मस्जिद आज भी जौनपुर की धरोहर बनी हुई है
इसके इतर जामा मस्जिद व झांझरी मस्जिद भी जौनपुर के प्रमुख धरोहरों में सम्मिलित है। वही सोशल मीडिया पर सर्वाधिक प्रचलित जौनपुर स्थल शाही पुल है। शाही पुल गोमती नदी के ऊपर बना है। इसका निर्माण मुगल बादशाह जलालुद्दीन अकबर ने 1567 ई. में करवाया था। शाही पुल आज जौनपुर का पहचान बना हुआ है। इस पुल के जनार्पण के वर्ष यानी 1567 ई. में अकबर भी जौनपुर में कुछ दिन रुके थे। ऐसा बहुतो का मानना है।

जौनपुर का धार्मिक धरोहर

जौनपुर का एक प्रसिद्ध व धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थल चौकिया धाम है। इस मन्दिर के बारे में एक कथा प्रचलित है। कहते है कि, इस मन्दिर की देवी यादवों की कुल देवी थी। जौनपुर के यादव चौकिया की देवी में बड़ी श्रद्धा रखते थे। आगे चलकर यादवों ने ही मंदिर की स्थापना करवाई. थी। आज इसे सम्पूर्ण हिन्दू समाज द्वारा अपनाया गया है और इसकी धार्मिक मान्यता दिन-ब-दिन बढ़ रही है।
जौनपुर में एक और लोककथा बड़ी प्रसिद्ध है। दरअसल, जौनपुर में यमदग्नी ऋषि का मन्दिर धार्मिक श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है। यमदग्नि ऋषि पंजाब में रहते थे। उस समय पंजाब का राजा सहस्रार्जुन था। यमदग्नि को सहस्रार्जुन के आतंक से पंजाब छोड़ना पड़ा। उन्हें जौनपुर की धरती बड़ी पसंद आई।
अब यमदग्नि जौनपुर की गोमती नदी के किनारे जमैथा नाम के गाव में कुटीर बनाकर रहने लगे। इसी कुटीर में उनका पुत्र हुआ। ये पुत्र साधारण बालक नहीं था। ये स्वयं भगवान परशुराम थे। परशुराम को लिए ऋषि यमदग्नि कई. वर्षों तक जौनपुर में रहे थे। अंततोगत्वा विधि के विधान ने खेल खेला और पंजाब नरेश सहस्रार्जुन को ऋषि यमदग्नि की कुटिया मिल गई.। सहस्रार्जुन ने परशुराम पिता यमदग्नि की हत्या कर दी। पिता की हत्या से परशुराम बड़े क्षोभित हुए। भगवान परशुराम ने युद्ध में जाने का निश्चय किया। और यह मान्यता है कि, जौनपुर की पावन धरती से ही भगवान परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का प्रण लिया था।

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