भारत में कई ऐसे कवि और साहित्यकार हुए जिनकी रचना में भारतीय समाज की छाप दिखती है। तो कई कवियों ने भारत की सुंदर मौसमों और वातावरण को अपनी रचना में जगह दी है। किसी को पढ़ के ऐसा लगता है कि मानो इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। कई ऐसी रचना भी हमारे देश में रची गई है, जिन्हें सुनकर या पढ़कर खून में उबाल आ जाता है। भारतीय साहित्य में खासकर हिंदी साहित्य ने अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है। जिसमें देश के महान कवियों का योगदान है। वैसे तो कई कवि और साहित्यकार हुए जिनकी रचना आज भी लोगों को मुंह-जबानी याद है। लेकिन आज हिंदी दिवस के इस मौके पर 5 उन कवियों की रचनाएं आपके सामने रख रहे हैं, जिनकी रचनाएं इतने समय बीतने के बाद भी आज के दौर और आज के समय में प्रासंगिक है।
Hindi Diwas :
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है- रामधारी सिंह दिनकरसदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली।
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हां, लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
जनता सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।
सो ठीक मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?
है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली।
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हां, लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
जनता सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।
सो ठीक मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?
है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?
मानो जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में।
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में।
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है।
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं।
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है।
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं।
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो।
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो।
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है।
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। अग्निपथ- हरिवंश राय बच्चन
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है।
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। अग्निपथ- हरिवंश राय बच्चन
वृक्ष हों भले खड़े,
हों घने हों बड़े,
एक पत्र छांह भी,
मांग मत, मांग मत, मांग मत,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
तू न थकेगा कभी,
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह खबर भी पढ़ें :- Hindi Diwas: हिंदी दिवस के मौके पर देखें ये कोट्स, स्कूल हो या कॉलेज….भाषण देने में काम आएंगे
तू न रुकेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है,
चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह खबर भी पढ़ें :- Hindi Diwas: हिंदी दिवस के मौके पर देखें ये कोट्स, स्कूल हो या कॉलेज….भाषण देने में काम आएंगे
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल- महादेवी वर्मा
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर। सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन।
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल।
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल।
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर। सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन।
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल।
तारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण।
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल।
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल। जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक।
जलमय सागर का उर जलता
विद्युत ले घिरता है बादल।
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल।
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण।
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल।
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल। जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक।
जलमय सागर का उर जलता
विद्युत ले घिरता है बादल।
विहंस-विहंस मेरे दीपक जल।
द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम।
वसुधा के जड़ अन्तर में भी
बन्दी है तापों की हलचल।
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल। मेरे निस्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर।
मैं अंचल की ओट किये हूँ।
अपनी मृदु पलकों से चंचल
सहज-सहज मेरे दीपक जल।
ज्वाला को करते हृदयंगम।
वसुधा के जड़ अन्तर में भी
बन्दी है तापों की हलचल।
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल। मेरे निस्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर।
मैं अंचल की ओट किये हूँ।
अपनी मृदु पलकों से चंचल
सहज-सहज मेरे दीपक जल।
सीमा ही लघुता का बन्धन
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन।
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल।
सहज-सहज मेरे दीपक जल। तुम असीम तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरन्तर।
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमिट चित्र अंकित करता चल।
सरल-सरल मेरे दीपक जल।
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन।
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल।
सहज-सहज मेरे दीपक जल। तुम असीम तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरन्तर।
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमिट चित्र अंकित करता चल।
सरल-सरल मेरे दीपक जल।
तू जल-जल जितना होता क्षय,
यह समीप आता छलनामय।
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल।
मंदिर-मंदिर मेरे दीपक जल
प्रियतम का पथ आलोकित कर। यह सच है- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तुमने जो दिया दान दान वह,
हिंदी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है—
यह सच है!
यह समीप आता छलनामय।
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल।
मंदिर-मंदिर मेरे दीपक जल
प्रियतम का पथ आलोकित कर। यह सच है- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तुमने जो दिया दान दान वह,
हिंदी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है—
यह सच है!
बार बार हार हार मैं गया,
खोजा जो हार क्षार में नया, —
उड़ी धूल, तन सारा भर गया,
नहीं फूल, जीवन अविकच है—
यह सच है! गीत नया गाता हूं- अटल बिहारी वाजपेयी टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर,
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात,
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पता हूं,
गीत नया गाता हूं।
खोजा जो हार क्षार में नया, —
उड़ी धूल, तन सारा भर गया,
नहीं फूल, जीवन अविकच है—
यह सच है! गीत नया गाता हूं- अटल बिहारी वाजपेयी टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर,
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात,
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पता हूं,
गीत नया गाता हूं।
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं।
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं।