मन मोह लेते हैं माधवरायजी:
जिला मुख्यालय से सटे सुरपुर गांव में स्थित माधवरायजी मंदिर धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से काफी समृद्ध है। इतिहासकार स्व. महेश पुरोहित के बताए अनुसार विक्रम संवत 1643 में महारावल सहस्त्रमल की रानी सूर्यकंवर ने सुरपुर का माधवराय मंदिर एवं घाट का निर्माण करवाया था। कालांतर में मंदिर परिसर में तीन अन्य मंदिर भी बने। मूल मंदिर में पारेवा पत्थर पर बना शिलालेख दीवार पर जड़ा है। माना जाता है कि यह एक ही पत्थर पर बना जिले का सबसे बड़ा शिलालेख है। हालांकि, इससे बड़ा शिलालेख गेपसागर की पाल पर श्रीनाथजी मंदिर परिसर में भी है। यह पारेवा पत्थरों को मिलाकर बना है।
राधे-बिहारी मंदिर:
गेपसागर जलाशय की पाल पर राधे-बिहारी मंदिर स्थित है। बीच में मुरलीधरजी मंदिर, इसके बाएं एकलिंगजी तथा दाएं रामचन्द्रजी का मंदिर है। इनकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1936 माघ शुक्ला दशम 20 फरवरी 1880 को हुई थी। राजभोग के लिए महारावल उदयसिंह ने भैरवे की बाड़ी अर्पित की थी।
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1856 में बना मुरलीधरजी मंदिर:
शहर के सुपरमार्केट स्थित मुरलीधरजी मंदिर है। इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1856 वैशाख सुदी छठ को महारावल वेरीशाल की पटरानी, महारावल फतहसिंह की माता, मारवाड़ व मेवाड़ रियासत की सीमा स्थित महत्वपूर्ण ठिकाने घाणेराव की निवासी मेढतानी शुभकुंवरी ने करवाई। मंदिर के सामने स्थित बगीचा चमनबाग महारावल जसवंतसिंह की रानी चमनकुंवरी ने लगवाया था। कालांतर में इस बगीचे का नाम उदयविहार हुआ। वर्तमान में यह महारावल स्कूल के आधिपत्य में हैं।
यहां है श्रीनाथजी की विराट प्रतिमा
गेपसागर जलाशय की पाल पर श्रीनाथजी के मंदिर में भारत की सबसे बड़ी गोवर्द्धननाथ (श्रीनाथजी) की प्रतिमा स्थापित है। उल्लेखनीय है कि मुगल शासक औरंगजेब के समय जब हिन्दू मंदिरों व मूर्तियों को तोड़ा जा रहा था, उस समय ब्रज धाम से वल्लभ संप्रदाय के भक्तजन श्रीनाथजी की प्रतिमा को रथ में विराजित कर सुरक्षित स्थल के लिए निकले थे। उस समय वे डूंगरपुर भी पहुंचे। प्रतिमा डूंगरपुर में स्थापित करने की अनुमति चाही, लेकिन तत्कालीन महारावल के उस समय तीर्थांटन पर होने से ऐसा नहीं हो पाया। बाद में श्रीनाथजी की प्रतिमा नाथद्वारा में स्थापित की गई। श्रीनाथजी के डूंगरपुर में कुछ दिन विश्राम करने के निमित्त ही विक्रम संवत 1679 वैशाख सुदी छह (ई.स. 1623, 25 अप्रेल) को तत्कालीन महाराज पूंजराज (पूंजा) ने गेपसागर की पाल पर श्रीनाथजी मंदिर बनवाया था। विक्रम संवत 1700 कार्तिक सुदी तीन (ई.स. 1643, 05 अक्टूबर) को महारावल ने वसई गांव की जमीन हासिल कर इस देवालय को देने के आदेश दिया था। यह मंदिर श्रीलक्ष्मण देव स्थान के अधीन है। वर्ष 1991 में डूंगरपुर के महारावल महिपालसिंह ने मंदिर के 64 फीट ऊंचे शिखर पर साढ़े 18 फीट ऊंचे ध्वज दण्ड की स्थापना कराई थी। यहां बनी 52 डेरियों में विभिन्न देवी-देवताओं की विमोहिनी प्रतिमाएं हैं।
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यहां भी कृष्ण मंदिर
डूंगरपुर शहर के न्यू मार्केट में राजाजी की छतरी स्थित जगदीश मंदिर, भावसारवाड़ा स्थित राधाकृष्ण मंदिर, माणक चौक स्थित स्वामीनारायण मंदिर, कानेरापोल स्थित जागेश्वर मंदिर, फौज का बड़ला स्थित नवनीतप्रियाजी मंदिर, नगरपालिका के निकट त्रिलोकीनाथ राधाकृष्ण मंदिर, मोची समाज का राधाकृष्ण मंदिर, भोईवाड़ा स्थित राधाकृष्ण मंदिर, रवीन्द्रनाथ टैगोर कॉलोनी में लक्ष्मीनारायण मंदिर आदि प्रमुख मंदिर शहरी क्षेत्र में हैं। सागवाड़ा में मुरलीधरजी मंदिर भावसारवाड़ा, नीमा समाज का चारभुजाधारी मंदिर, दर्जी समाज का द्वारिकाधीश मंदिर, खडगदा स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर भी दर्शनीय है। आसपुर क्षेत्र में राधाकृष्ण मंदिर आसपुर एवं गोपालधाम लीलवासा, वणियाप का राधेकृष्ण मंदिर, चीतरी लक्ष्मीनारायण मंदिर आस्था के स्थल हैं। वहीं, बेणेश्वर स्थित निष्कलंक धाम और साबला हरिमंदिर की ख्याति भी सुदूर तक है।